रवींद्रकुमार व्यास। मध्यप्रदेश के सरकारी कॉलेजों में सहायक प्राध्यापकों की भर्ती ’परीक्षा हो और परीक्षा न हो’ के पक्ष और विपक्ष के बीच उलझती और गहरी उलझती नजर आ रही है। इसने केबिनेट और नौकरशाहों के बीच गहरे विवाद को जन्म देने रास्ता भी अख्तियार कर लिया है। केबिनेट के निर्णय के बाद बुधवार को जहां अतिथि विद्वानों ने केबिनेट में परीक्षा निरस्त करने के लिये अड़े रहे मंत्रियों राजेन्द्र शुक्ल, गौरीशंकर शेजवार, डॉ नरोत्तम मिश्र, रूस्तम सिंह, डॉ. विजय शाह, जयंत मलैया और विश्वास सारंग का सम्मान किया, वहीं परीक्षा चाहने वालो ने इन मंत्रियों को आड़े हॉथों लिया। खबर है कि कुछ युवाओं ने पीएससी कार्यालय के सामने परीक्षा होने के लिये नारेबाजी की और प्रदर्शन किया। इस तरह देखा जाये तो इस परीक्षा के आयोजन और प्रयोजन ने प्रदेश के युवाओं को आपस में ही उलझा दिया है और जिम्मेदार भी दो दो-दो हाथ करते हुए नजर आ रहे है। ऐसे में फिर एक बार संशय व्याप्त हो गया है कि यह परीक्षा हो पायेंगी? की 2014 और 2016 के इतिहास को दोहरायेगी।
विचारणीय प्रश्न अतिथि विद्वानों के दर्द और उनके जीवन में आने वाले उथल पुथल को दूर कर उन्हें स्थायित्वता का है। 22-24 साल कम नहीं होते। जिन्होंने अपनी जवानी और ऊर्जा पूरी तरह इस सिस्टम में झोंक दी। कुछ नहीं सोचा न आगे और न पीछे। सिर्फ उम्मीद और विश्वास के बल पर कम वेतन और अनिश्चितता के आलम में निश्चितता के ख्वाब देख परिवार भी बसा लिया और बढा भी लिया। अब उम्र के इस पढाव पर है कि पीएससी एक खूंखार राक्षस से कम नजर नहीं आ रही है जो ले डूबेगी अस्मिता और अस्तित्व को। बिखर जायेगा परिवार। खाने के लाले पढ जायेंगे। क्योंकि अब इस उम्र में कौन सा नया आशियाना बनाये जब हॉथ में कुछ नहीं बचेगा। यह तनाव और अवसाद पूरे प्रदेश में अतिथि विद्वानों को खाये जा रहा है यही कारण है कि यह कहीं न्यायालय की शरण के लिये लाखों रूपये बूंद बूंद से एकत्रित कर अधिवक्ताओं के पेट भर रहे है, तो मंत्रियों की चौखट पर दया की भीख मांग रहे है और सभी धर्मो के आराध्यों से मन्नत मांगने में जुटे हुए है। जिसका असर मंगलवार को केबिनेट में दिखा।
पीएससी परीक्षा कराने के लिये तत्पर एक पक्ष के लोगों की भी केबिनेट की बैठक में मंत्रियों और नौकरशाहों की खींचतान से उनकी भी नींद उड़ गयी। और वो भी सडक पर उतर आये। इन्हें परीक्षा में सफलता की उम्मीद है। फिर चाहे जो भी हो। उनका दावा और पक्ष उनकी जगह उनके लिये सही है। केबिनेट और सरकार जहां प्रदेश के युवाओं के लिये ज्यादा से ज्यादा प्रदेश में ही नौकरी मिले की नीति पर काम कर रही है वहीं नौकरशाही इसके विपरीत। वजह है उनका प्रदेश के बाहर के युवाओं की योग्यता पर ज्यादा भरोसा। साथ ही नाते रिश्तेदारों से गहरा संबंध और गहरी आस्था।
उनका तर्क है कि यदि पीएससी नहीं हुई तो उन्हें अच्छे शिक्षक नहीं मिलेंगे और विद्यार्थियों का भविष्य बर्बाद हो जायेगा। मै विनम्रता पूर्वक पूंछना चाहता हॅू। 2002 से अभी तक पिछले सोलह सालों से अतिथि विद्वान व्यवस्था, इसके पूर्व तदर्थ और संविदा व्यवस्थओं में पिछले 22 सालों से उच्च शिक्षित युवा आपके ही द्वारा विज्ञापन की शर्तो को पूरा करते हुए प्रवीण्यता के आधार पर अध्यापन करते आ रहे है। इतने सालों में विद्यार्थियों का भविष्य बना की बिगड़ा? कितने विद्यार्थियों, समाज के ठेकेदारों और अभिभावकों ने प्रशासन और शासन के लिये शिकायती पत्र भेजे कि अतिथि विद्वानों से मेरी संतानों का भविष्य बर्बाद हो रहा है। इसके विपरीत जो नियमित सहायक प्राध्यापक और प्राध्यापक कार्यरत है इनकी समाज में बड़ी नकारात्मत छवि है।
नौकरशाह भी इन्हें कई अवसरों पर कहते हुए नजर आये है कि एक लाख पाने वाले एक रूपये का भी काम नहीं करते। उच्च शिक्षा मंत्री पवैया ने भरे मंच से कई बार स्वीकार किया कि अतिथि विद्वानों की मेहनत और पुरूषार्थ से विद्यार्थियों का भविष्य बन रहा है और कालेज जीवित है। फिर ये झूंठी दलील केबिनेट में अधिकारियें की...? इतना ही नहीं यह भी कहा गया कि इन्हें प्रतिमाह 25000/- मिल रहा है। माननीय गुमराह मत करों आप जिम्मेदार है। प्रदेश के अतिथि विद्वानों के भुगतान पत्रकों का अध्ययन कर लीजिये। सरकारी अभिलेख आपके सिस्टम में सुरक्षित है। अध्ययन करने का जोखिम उठाईये। जवाब मिल जायेगा। मै आपकी इस ओथी और ओछी बात पर प्रतिक्रिया दू। मर्यादा का भान है मुझे। जिसकी उम्मीद हम लोग आपसे इस जिम्म्ेदार पद होने से करते है। सरकार की मजबूरी और मजबूती युवा ही है। ऐसे में सरकार को किसी एक निर्णय तक पहुंचना धारदार तलवार पर चलने से कम प्रतीत नहीं होता। ऐसे में सरकार दोनों को साधने के प्रयास में जुटी है। यही कारण है कि केबिनेट ने अतिथि विद्वानों को 30000/- प्रतिमाह संविदा नियुक्ति और अन्य सुविधाओं का लालीपाप दिया। जिसकी खुशी और आनंद का लुत्फ अतिथि विद्वान नहीं उठा पा रहे है क्योंकि उनके सिर पीएससी रूपी खतरा सामने खडा है उनकी मांग है कि सौगात देनी ही है तो पहले संविदा नियुक्ति दे दीजिये बचे पदों पर पीएससी की भर्ती कर दीजिये। जबकी नौकरशाहों का तर्क इसके विपरीत।
अब इन एक-दूसरे विपरीत ध्रुवों ने सरकार की मुश्किलें ओैर बढा दी है। ऐसे में मेरा मानना है कि सरकार को चाहिये कि वह पीएससी की परीक्षा समय सारिणी में संशोंधन कर इसे और आगे बढा दे साइट पर जिसने 30 मई को आवेदन भरा उसे परीक्षा की तैयारी का कितना समय मिला...? उसके साथ तो अन्याय है? इसीलिये उस अंतिम आवेदक के हित को दृष्टिगत रखते हुए परीक्षा की समय सारिणी कम से कम तीन महिनें और हो सके तो अगली साल कराने का सुझाव देता हूॅ। इससे सरकार दोनों का हित साध सकती है। दूसरी बात उच्चतम न्यायालय से सरकार ने जो पिटशिन वापिस ले ली थी प्रदेश और देश के अभ्यार्थियों की आयु से संबंधित उसे पुनः न्यायलय में ले जाना चाहिये इससे बहुत हद तक अतिथि विद्वानों की हताशा कम हो जायेगी और प्रदेश के युवाओं को लाभ मिल सकेगा।
तीसरी बात साक्षात्कार के खत्म करने वाले निर्णय पर सरकार पुनः विचार करें। साथ ही परीक्षा में एक सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र जो मध्यप्रदेश सामान्य अध्ययन से प्रबल हो लागू करने पर विचार करें। रोस्टर के प्रश्न को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय ने भी गंभीरता से लिया और उन्होंने माना कि इसमें 50 प्रतीशत से अधिक आरक्षण दिया गया है। जिसकी पुनः जांच और समीक्षा की अनिवार्यता है। यह सुझाव विनम्रता पूर्वक इस सरकार और प्रशासन के समझ प्रेषित है। न तो इसमें कोई पूर्वाग्रह है और न ही किसी का पक्ष और विपक्ष। ...
लेखक रवींद्रकुमार व्यास, वरिष्ठ अधिवक्ता व सामाजिक चिंतक हैं। सोनकच्छ जिला देवास निवासी हैं।
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