डॉ अजय खेमरिया। देश की सियासत में एक बार फिर जाति का जिन्न खड़ा होने के आसार है। इसे आप मण्डल पार्ट 2 भी कह सकते है। केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार ने देश की 50 फीसदी पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लामबंद करने की पहल गम्भीरता से शुरू कर दी है। जी रोहिणी की अध्यक्षता में गठित कमीशन इस बात की पड़ताल करेगा कि ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को सभी पिछड़ी जातियों के बीच कैसे समानरूप से वर्गीकृत किया जाए। गौर करने वाली बात है कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह पिछले दिनों एलान कर चुके है कि उनकी पार्टी का लक्ष्य 50 फीसदी वोट प्राप्त करना है। मोदी सरकार 31 फीसदी वोटों के समर्थन से सत्ता में है औऱ आज जब सयुंक्त विपक्ष की अवधारणा आकार ले रही है।
खासकर यूपी, बिहार के गणित को देखे तो बीजेपी के लिये रोहिणी कमीशन एक गेम चेंजर साबित हो सकता है। असल मे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी जमावट सोशल इंजीनियरिंग पर आधारित रहती है। उन्होंने यूपी में गैर यादव, गैर जाटव, हरियाणा में गैर जाट, झारखण्ड में गैर आदिवासी, महाराष्ट्र में गैर मराठा, जैसे कार्ड अपनाए। जिनके सार्थक नतीजे भी आये है। रोहिणी आयोग को राजनीतिक नफे नुकसान के नजरिये से तो देखा ही जाना चाहिये। साथ ही आरक्षण की बुनियादी अवधारणा औऱ उद्देश्य के आलोक में भी विश्लेषित करने का यह अच्छा अवसर है।
देश की कुल आबादी का 50 फीसदी ओबीसी माना जाता है और उसे सरकारी क्षेत्र में 27 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। सरकार के अधिकृत आंकड़ो के मुताबिक केंद्रीय सेवाओं में फिलहाल ओबीसी का प्रतिनधित्व 7 फीसदी है। विश्वविधायलयो में 22 फीसदी औऱ उच्च न्यायपालिका में 2 फीसदी से भी कम है। जाहिर है ये आंकड़े ओबीसी की आबादी के हिसाब से न्यायप्रद नही है लेकिन इसके उलट जो कहानी है वह कुछ दूसरी इबारत लिखती है। ओबीसी में यादव, जाट, कुर्मी, कुछ इलाको में गुर्जर, पाटीदार जैसी जातियों का नौकरियों, राजनीति, सभी जगह 55 से 70 फीसदी तक ओबीसी कोटे से आर्थिक राजनीतिक उठान पिछले 30 वर्षो में जबरदस्त तरीके से हुआ है। ओबीसी क्रीमीलेयर की सीमा 8 लाख तक किये जाने के बाद से ओबीसी के अधिकतर जातियां कुछ आधा दर्जन जातियों के आगे बंधक बनकर रह गई हैं। यही कारण है कि केंद्रीय सेवाओ में ओबीसी का प्रतिशत समेकित रूप से बढ़ नही आ पा रहा है।
तथ्य ये है कि ओबीसी में समान प्रतिस्पर्धा हो ही नही पा रही हैं। संविधान सभा मे बाबा साहब अम्बेडकर ने आरक्षण के दर्शन पर स्पष्ट कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति से कम्पीटीशन कर सके यही इसकी आत्मा है। लेकिन हो उल्टा रहा है। कल्पना कीजिये सैफई या पटना के यादवों से कोई प्रतिस्पर्धा बनारस या पूर्वांचल के कोई राजभर कर सकते है या बुंदेलखंड के किसी लोधी में इन कथित लोहियावादीयो से कम्पीटीशन की हिम्मत ओबीसी कोटे में टिकेगी? बिहार के स्वाभाविक सत्ता केंद्र बन चुके यादव और कुर्मियों के आगे मुसहर, मल्लाह, केवट, कुम्हार, नाई, धोबी टिक पा रहे है।
एक कड़वी हकीकत तो यही है कि कुछ बड़ी जातियों ने ओबीसी के विशाल समुदाय को हाशिये पर पटक रखा है। मुस्लिम यादव का माय समीकरण या मुस्लिम जाट का कॉम्बिनेशन इसी में सत्ता की चाबी समा गई। सामाजिक न्याय के नाम पर लालू, मुलायम, देवगौड़ा, देवीलाल, चरण सिंह जैसे नए सिंडिकेट्स अवतरित हुए और अब इन का पीढ़ीगत राज्यारोहण भी हम अपने सामने देख ही रहे है। सवाल इस प्रहसन में फिर उस 50 फीसदी के समेकित प्रतिनिधित्व का है जिसे लेकर क़भी कर्पूरी ठाकुर या लोहिया ने सपना देखा था, जिस बराबरी के कम्पटीशन की बात डॉ आंबेडकर ने रखी थी।
बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे को किनारे पर भी रख दें तो इन 100 से अधिक पिछड़ी जातियों के दर्द को समझने की आवश्यकता आज प्रासंगिक नजर आती है। इसलिये मोदी सरकार की इस पहल का कितना भी राजनीतिक विरोध हो पर आरक्षण की मूल भावना के लिये जस्टिस जी रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट आज समय की अनिवार्यता है। इस कमीशन का गठन 1993 में जारी सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुक्रम में किया गया है और 20 जून तक अंतिम रूप से इसे ओबीसी वर्गीकरण पर अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी है।
कहा जा रहा है कि रोहिणी आयोग को 27 फीसदी आरक्षण का वर्गीकरण तीन भागों में करना है यानी 9-9-9 भाग में पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी के अंदर अब आरक्षण का लाभ मिलेगा। इसके लिये ओबीसी,(पिछड़ी) एमबीसी(मध्यम पिछड़ी) ईबीसी (अतिपिछड़ी) में सभी पिछड़ी जातियों को बांटा जाएगा। इससे जो 100 से अधिक पिछड़ी जातियां सामाजिक आर्थिक राजनीतिक रूप से 70 साल बाद भी प्रगति पथ पर रेंग रही है उन्हें बराबरी का हक मिल सकेगा।
हालांकि देश 11 राज्यो में ये वर्गीकरण पहले से ही मौजूद है राजनाथ सिंह ने यूपी के सीएम रहते इसकी शुरूआत की थी। बाद में जम्मू कश्मीर बिहार और अन्य राज्यों में भी इस फार्मूले को अपनाया गया है लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर इस वर्गीकरण के लागू होते ही ओबीसी राजनीति का चेहरा बदलना तय है। बीजेपी अध्यक्ष के 50 फीसदी वोट के लक्ष्य के लिये भी ये मददगार साबित होगा। वस्तुतः आरक्षण की यह विसंगति सिर्फ ओबीसी वर्ग में हो ऐसा नही है एससीएसटी के लिये घोषित आरक्षण में भी कमोबेस इससे भी बुरे हालात है। दलितों के कोटे को एक जाति ने अपने ओक्टोपशी शिंकजे में ले रखा है।
अनेक दलित जातियां आज भी आरक्षण में छिपी उस सम्रद्धि की बाट जोह रही हैं जिन्होंने 2 अप्रेल को अपनी दलित चेतना का प्रदर्शन सड़कों पर किया था। अधिकांश दलित लोग सामाजिक आर्थिक रूप से 70 साल में 7 कदम भी आगे नही बढ़ पायें हैं और कुछ एक जातियों ने सम्पन्नता के ताज महल तान दिये। त्रासदी दलित आरक्षण की यह भी है कि इसमें क्रीमीलेयर का भी कोई चक्कर नही है। यानि कलेक्टर का बेटा अपनी मर्सडीज से बैठकर दलित आरक्षण के सब लाभ लेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो सुभाष कुमार बताते है कि क्रीमीलेयर के प्रावधान न होने से वास्तविक दलितों के बच्चें अच्छे कॉलेजों में दाखिला लेने के लिये कॉम्पिटिशन में टिक ही नही पाते है क्योंकि दो पीढ़ी से आरक्षण का लाभ ले रहे दलित से वह कैसे प्रतिस्पर्धा कर सकता है। जिसकी स्कूली शिक्षा सामान्य स्कूलों में हुई हो। राजस्थान के मीणा देश भर में आदिवासी कोटे से अखिल भारतीय सेवाओं में छाए हुए हैं। ऐसे में मप्र के भील, भिलाला, सहरिया, बेगा, मोंगिया, जाती के लोग क्या इनके आगे टिक सकेंगे? सहज ही समझा जा सकता है।
जाहिर है जिस बाबा साहब के नाम पर 2 अप्रेल को देश मे नँगा नाच किया गया उनका बाबा साहब के दर्शन से कोई रिश्ता नही है। ये देश के नए आरक्षणजीवी नवसामन्त हैं जिनके आंगन में दलित, आदिवासी, या ओबीसी के लिये कोई जगह नही है। मोदी सरकार का ओबीसी आरक्षण के वर्गीकरण का फैसला इस लिहाज से डॉ आंबेडकर औऱ लोहिया के दर्शन को 70 साल बाद जमीन पर उतारने का ईमानदार प्रयास ही है। उम्मीद रखनी चाहिये कि सरकार इस निर्णय से अपने कदम पीछे नही लेगी औऱ देरसबेर एससीएसटी को भी इसी तर्ज पर न्याय का रास्ता खुलेगा।
(लेखक डॉक्टर अजय खैमरिया ओबीसी राजनीति में डॉक्टरेट है)
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