थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति न केवल फिर से बढ़ गई, बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा किपिछले चार साल में सबसे ज्यादा हो गई। पुष्टि के सरकार आंकड़ों को ही देखिये, जिनमे में बताया गया है कि इस बार जून में यह 5.77 प्रतिशत तक पहुंच गई। मई का आंकड़ा 4.43 प्रतिशत था और पिछले साल जून में यह मात्र 0.90 प्रतिशत था। इससे पता चलता है कि महंगाई किस तेजी से बढ़ रही है। पिछले एक साल के दौरान महंगाई बढ़ी और फिर एक महीने के भीतर ही इसमें और इजाफा हो गया। चौंकाने वाली बात यह है कि थोक महंगाई में यह बढ़ोतरी सब्जियों और र्इंधन के दाम बढ़ने का नतीजा है। पिछले कुछ महीनों में पेट्रोल और डीजल के दाम सारे रिकार्ड तोड़ते हुए नई ऊंचाइयां छू गए थे। तभी इस बात के पुख्ता आसार नजर आने लगे थे कि अब महंगाई का ग्राफ ऊपर जाएगा और इसका सीधा असर फल-सब्जियों और दूसरे खाद्य पदार्थों पर तेजी से पड़ेगा। इससे पहले दिसंबर 2013 में थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति 5.9 प्रतिशत तक जा पहुंची थी। उसके बाद यह पहला मौका है जब यह साढ़े पांच फीसद के स्तर को पार गई है।
जून में खुदरा मुद्रास्फीति पांच प्रतिशत पर पहुंच गई थी। खुदरा मुद्रास्फीति का पिछले पांच महीने में यह सबसे ऊंचा आंकड़ा रहा। इस साल जनवरी में भी यह पांच प्रतिशत से ऊपर रही थी। मई में 4.87 प्रतिशत, जबकि पिछले साल जून में 1.46 प्रतिशत रही थी। महंगाई चाहे थोक मूल्य सूचकांक आधारित हो या फिर खुदरा में, इसका सीधा असर बाजार और खरीदार पर पड़ता है। कच्चे तेल के दाम बढ़ते ही बाजार में पेट्रोलियम उत्पाद महंगे हो जाते हैं। और जैसे ही पेट्रोल-डीजल में जरा भी तेजी आती है, उसका सबसे पहला असर माल-भाड़े और ढुलाई पर पढ़ता है और इसका सीधा बोझ उपभोक्ता की जेब पर पड़ता है। बाजार में फल और सब्जियों पर इसका असर होता है। मंडियों में एक ही दिन में दाम चढ़ जाते हैं, इसीलिए महंगाई थोक हो या खुदरा, असर दोनों का पड़ता है।
महंगाई दरें को आंकड़े काफी कुछ निर्धारित करते हैं। पूरा आर्थिक क्षेत्र इससे प्रभावित होता है। पहली बात तो यही कि महंगाई को काबू में रखने के लिए रिजर्व बैंक अपनी नीतिगत दरों को पूर्ववत रख सकता है या फिर बढ़ा भी सकता है। आज की सूरत में नीतिगत दरों में कमी का तो सवाल ही नहीं है। इस महीने के आखिर में आरबीआइ की मौद्रिक नीति समिति की बैठक होने वाली है। देश की मौद्रिक नीति तय करने में रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति के आंकड़ों का इस्तेमाल करता है। रिजर्व बैंक का लक्ष्य रहता है कि महंगाई दर चार प्रतिशत से ऊपर न निकले। लेकिन जब मुद्रास्फीति इससे ऊपर निकलने लगती है तो केंद्रीय बैंक पर नीतिगत दरों को बढ़ाने का दबाव बढ़ जाता है और इसका सीधा असर यह होता है कि बैंक कर्ज सस्ता होने के आसार कम हो जाते हैं। हालांकि मुद्रास्फीति में इस तरह की बढ़ोतरी को अर्थशास्त्रियों ने अस्थायी ही बताया है। उम्मीदें अच्छे मानसून को लेकर भी हैं। अगर मानसून अच्छा रहा, खेत लहलहा गए तो हो सकता है आने वाले वक्त में मुद्रास्फीति में सुधार आ जाए। लेकिन फिलहाल इसे काबू में रखना सरकार के लिए एक चुनौती तो है ही।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।