आधुनिक तकनीक से डाटा इकट्ठा करना उससे उम्मीदवारों का चयन करना हर राजनीतिक दल में अपरिहार्य प्रक्रिया बनती जा रही है। चाहे विधान सभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव, उम्मीदवार चयन के सारे मापदन्डों को धता बताकर “दागी” न केवल टिकट पाने में सफल होते हैं, बल्कि चुने जाते हैं और मंत्री तक बन जाते हैं। कोई भी राजनीतिक दल इससे इतर नहीं है, सब दागियों की टिकट देते है, कोई भी इस प्रक्रिया में सुधार की पहल नहीं करना चाहता।
यद्यपि ये आंकड़े लोकसभा के पिछले चुनाव के हैं, परन्तु विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी चयन और निर्वाचन में चुने गये दागियों की संख्या भी कम नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स और नेशनल इलेक्शन वॉच जैसी संस्थाओं द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार देश के दोनों प्रमुख दलों ने, भाजपा ने 37 प्रतिशत तो कांग्रेस ने 28 प्रतिशत, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया और जनता ने भी इनमें से 186 उम्मीदवारों को लोकसभा में पहुंचा दिया यानी कुल सदस्यता के एक तिहाई से अधिक से अधिक। 2009 के चुनाव में यह प्रतिशत 30 था। विश्लेषण में यह भी बताया गया कि आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की जीत की संभावना 13 प्रतिशत थी, जबकि साफ छवि के उम्मीदवारों की संभावना मात्र पांच प्रतिशत।
सभी राजनीतिक दल भी आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट देते आ रहे हैं और जनता भी उन्हें अपना नुमाइंदा चुनती आ रही है। इस विरोधाभास की जटिलता को समझने के लिए हमें वर्तमान सामाजिक मूल्यों पर नजर डालनी होगी और जानना होगा कि कानून जिन्हें अपराधी, दागी या गलत मानता हैं, क्या समाज भी उन्हें वैसा ही मानता है? जाहिर है इसका उत्तर हां में नहीं हो सकता और इसीलिए यह प्रश्न विचारणीय है। नतीजा भी हमारे सामने है कि राजनीतिक दल दलगत मानदंडों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करते हैं और उनमें किसी के दागी होने या न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। जनता भी अपने नजरिए से निर्णय लेती है और कभी अदालत के फैसले तो कभी अपनी पसंद को वरीयता देकर जनप्रतिनिधि चुन लेती है।
एक प्रमुख कारण मतदाताओं का राजनीतिक दल विशेष से भावनात्मक और नीतिगत तौर पर जुड़ाव भी है। इस कारण के चलते वे उम्मीदवार को न देखकर उस दल के नेता और नीति को सामने रखकर अपना उम्मीदवार चुन लेते हैं। कभी-कभी ऐसे उम्मीदवार भी चुन लिए जाते हैं, जो लोकप्रिय तो नहीं होते लेकिन राजनीतिक दल को अवश्य ‘प्रिय’ होते हैं। ऐसी विकल्पहीनता की स्थिति में दल विशेष से अटूट आस्था रखने वाले मतदाताओं के पास अपने दल के उम्मीदवार को चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता, बेशक स्वतंत्र सोच वाले मतदाता, जिनकी संख्या कम ही है, ऐसे चुनाव हार जाते हैं।
मतदाताओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो अपने कीमती मत को खराब होते हुए नहीं देखना चाहता। यह वर्ग सामान्यतया जीतने वाले उम्मीदवार को ही अपना मत देना पसंद करता है क्योंकि अपने कीमती मत को वह रद्दी की टोकरी में नहीं डालना चाहता, फिर भले ही ऐसे उम्मीदवार की छवि दागी ही क्यों न हो। आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में दागी उम्मीदवारों को लेकर राजनीतिक परिदृश्य बदलने की कोशिश राजनीतिक दलों को करना चाहिए यह बात इससे पहले अनेकों बार सुझाई गई है। राजनीतिक दल अगर समझने को तैयार नहीं तो मतदाताओं को ऐसे उम्मीदवारों को वोट देने के स्थान पर “नोटा” करना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।