फिर सतना से आई हैवानियत की खबर, फिर वही पीड़िता के कभी न भरने वाले जख्म, फिर वही सोशल मीडिया पर निंदा का दौर, फिर वही राजनेताओं के पार्टी के झंडों-कार्यकर्ताओं के हुजूम के साथ दौरे, फिर वही दिलासा, सांत्वना, दोषियों को सजा मिलेगी जैसे वादे, फिर वही मुआवजे का खेल, फिर वही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप और फिर वही सड़कों पर जनता का जुलूस। अब इस फिर वही को आप किसी भी संदर्भ में पढ़ लें। दिल्ली, उन्नाव, कठुआ, मंदसौर शहर कोई भी हो, अपराध एक जैसा ही है।
समाज के सारे सुरक्षित-आरक्षित सारे काम लड़कियां कर सकती हैं और यह उन्होंने बार-बार सिद्ध किया है। लेकिन प्रकृति द्वारा दी गई इस बराबरी का अपमान करते हुए, लड़कियों के लिए संस्कार, लज्जा, मर्यादा जैसे शब्दों का पहाड़ सिर पर खड़े कर दिए जिससे उनके सिर-कंधे-गर्दन इतने झुके, कि कभी उठे नहीं। इन्हें दबाकर पुरुष प्रधान समाज को अपनी प्रधानता बनाए रखने में सहूलियत होती है। अपनी सहूलियत को थोड़ा सभ्य दिखाने के लिए कुछ पाखंड भी रचे गए।
अब सतना पहले दिल्ली से लेकर मंदसौर तक, बलात्कार की घटनाओं पर मोमबत्ती लेकर निकलने वाले समाज को अब अपनी मानसिकता पर भी विचार करना चाहिए। सरकारें आती-जाती रहती हैं, इसलिए सरकार से सुरक्षा की उम्मीद बेकार है। आज के हुक्मरान कहीं मामा बनकर लड़कियों के हितैषी बने हैं, तो कहीं 56 इंच की छाती जैसे भद्दे वाक्य बोलकर अपनी वीरता का मौखिक प्रदर्शन करते हैं। क्या केवल जनप्रतिनिधि और सत्ता में होने के नाते इन पर यह जिम्मेदारी नहीं है कि वे आम जनता की हिफाजत करें, इसके लिए पुरुषवादी संवाद बोलकर क्या ये पुरुषप्रधान समाज को ही बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? इसके बाद भी तो बेटियां असुरिक्षत हैं, दिल दहलाने वाले हादसे हो रहे हैं। जिन घटनाओं के बारे में पढ़कर-तस्वीरें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उनकी पीड़िताओं पर क्या बीतती होगी, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन हैरत है कि इन भयावह घटनाओं पर भी राजनीति चालू हैं। और हमने अपना जमीर उसके हाथों गिरवी रख दिया है?
क्या बलात्कार की घटना में हिंदू-मुस्लिम के भेदभाव की गुंजाइश होनी चाहिए? क्या वहां धर्म से ऊपर उठते हुए पीड़िता के साथ पूरे समाज को खड़ा नहीं होना चाहिए और क्या अपराधी को सख्त सजा नहीं मिलनी चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो? भारत लड़कियों के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित देश है, इस रिपोर्ट पर भी आत्ममंथन की जगह राजनीति से प्रेरित सवाल उठाए जा रहे हैं। सवाल तो समाज को अब अपने आप से करना चाहिए कि कब तक हम एक बेटा तो होना ही चाहिए वाली मानसिकता में जिएंगे? देश की सारी माँ भी सोचें कि वे अपने राजा बेटा को किस तरह की परवरिश दे रही हैं? कहीं उनकी आंखों का तारा, किसी के लिए दु:स्वप्न तो नहीं बन रहा?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।