भारत में इन दिनों डिजिटल क्रांति की बात जोरों पर है, साथ ही सामजिक सुरक्षा की बात भी जोरों से चल रही है। इसके समानांतर सरकार डिजिटल सुरक्षा के नाम पर इंटरनेट, व्हाट्स एप, आदि पर शिकंजा भी कसना चाहती है। इस को लेकर तमाम पुष्ट- अपुष्ट खबरें तैर रही हैं। सरकार की तरफ इस बात का कोई स्पष्टीकरण न आना, इस मुद्दे को और गंभीर बना रहा है। दुनिया भर में, कुछ अपवादों को छोड़कर, कानूनी मान्यता प्राप्त सामाजिक सुरक्षा के नियमों को जानबूझकर सीमित रखा गया है।
अमेरिका में, बहुत सारे गैर-सरकारी संगठन इमारतों और आग से निपटने के कोड विकसित करते हैं और बाद में उन्हें कानून में तब्दील कर दिया जाता है। इन कोड की एक कॉपी को बनाने में सैकड़ों डॉलर खर्च होते हैं और, खासतौर पर, कॉपीराइट का मामला खड़ा कर दिया जाता है ताकि कोई व्यक्ति बिना निजी संस्था से लाइसेंस लिए कानून के बारे में बात न कर सके।
भारत में भी यही हुआ है, लेकिन यहां पर सरकार ने सामाजिक सुरक्षा संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाओं को लोगों तक पहुंचने नहीं दिया। यह काम अब डिजिटलीकरण के दौर में और कठिन होता जा रहा है। भारतीय मानक ब्यूरो सारे कोड पर अपना कॉपीराइट जताता है। इसके लिए भारी फ़ीस लेता है। पिछले दिनों सरकारी आपदा नियंत्रण टास्क फोर्स की बैठक हुई और यह सुझाव दिया गया कि सारे सरकारी अधिकारियों को आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए इन महत्वपूर्ण सुरक्षा कोड की एक कॉपी दी जाए, तो भारतीय मानक ब्यूरो ने बताया कि वे तभी इसकी कॉपी उपलब्ध कराएंगे जब हर अधिकारी लाइसेंस संबंधी एक समझौता करेगा और 13760 रूपए फीस के तौर पर देगा। इसकी दूसरी कॉपी बनाने की भी किसी को इजाजत नहीं होगी। यह एक बानगी है, अब सारे कोड डिजिटल होने जा रहे हैं। सब इंटरनेट पर, शुल्क के साथ।
हर पीढ़ी के पास एक मौका होता है। इंटरनेट ने सच में एक बड़ा मौका दिया है और यह सभी लोगों की ज्ञान तक पहुंच है। सरकारी फरमान और हमारे महान लोकतंत्र के कानून तक पहुंच प्राप्त करने में लगे है, लेकिन यह सिर्फ इस बड़े मौके का एक छोटा हिस्सा है। सरकारी निगाहों को उठकर देखना चाहिए। ज्ञान और कानून का समन्वय वैश्विक पहुंच की उन दुर्गम बाधाओं को पार करने में मदद करेगा जिन्हें आज हम झेल रहे हैं। और, यह तभी होगा जब हम सब चुनिंदा मसलों पर ध्यान लगाकर उन्हें लगातार और व्यवस्थित तरीके से अंजाम देते रहेंगे। अभी तो सबकुछ अस्त-व्यस्त और निहित स्वार्थों से न्यस्त है। एक न्यायपूर्ण समाज में, एक विकसित लोकतंत्र में, हम आम लोग उन नियमों को जानते हैं जिसके तहत हम खुद पर शासन करने का चुनाव करते हैं और हमारे पास दुनिया को बेहतर बनाने के लिए उन नियमों को बदलने की क्षमता है। मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि बदलाव अनिवार्यता के चक्कों पर सवार होकर नहीं आता।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।