इंदौर। श्रम न्यायालयों में अक्सर होता था कि कर्मचारी अपनी याचिका में दावा करता था कि उसने उल्लेखित अवधी में सेवाएं दीं हैं और इसे प्रमाणित मान लिया जाता था। विवाद की स्थिति में नियोक्ता की जिम्मेदारी होती थी कि वो प्रमाणित करे कि कर्मचारी विवादित अवधि में सेवाएं नहीं दे रहा था परंतु अब ऐसा नहीं होगा। हाईकोर्ट ने श्रम न्यायालय के एक फैसले को पलटते हुए आदेशित किया है कि यह कर्मचारी की जिम्मेदारी है कि वो अपनी सेवा अवधि को प्रमाणित करे।
मामला उज्जैन नगर निगम का है। हुसैन पिता इब्राहम ने मार्च 2004 से मई 2005 तक निगम में दैनिक वेतनभोगी के रूप में काम किया था। बाद में निगम ने उसे बर्खास्त कर दिया। हुसैन ने श्रम न्यायालय की शरण ली। निगम के खिलाफ केस दायर कर उसने कहा कि वह लगातार 14 महीने निगम का कर्मचारी रहा है। बगैर पर्याप्त कारण के उसे बर्खास्त नहीं किया जा सकता।
श्रम न्यायालय ने निगम को आदेशित किया कि वह हुसैन की नौकरी के संबंध में दस्तावेज प्रस्तुत करे, जो निगम नहीं कर पाया। इस पर श्रम न्यायालय उज्जैन ने हुसैन की बर्खास्तगी के आदेश को ही निरस्त कर दिया। फैसले को चुनौती देते हुए निगम ने एडवोकेट गिरीश पटवर्द्धन के माध्यम से हाई कोर्ट में याचिका दायर की। इसमें कहा कि श्रम न्यायालय ने कर्मचारी के पक्ष में फैसला देकर गलती की है।
यह नियोक्ता की जिम्मेदारी नहीं है कि वह सिद्ध करे कि कर्मचारी उसके यहां लगातार 270 दिन तक काम पर नहीं था। एडवोकेट पटवर्द्धन ने बताया कि दोनों तरफ से करीब डेढ़ दर्जन न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किए गए। दोनों पक्षों को सुनने के बाद हाल ही में कोर्ट ने श्रम न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया। कोर्ट ने माना कि यह बताना कर्मचारी की जिम्मेदारी है। इसे नियोक्ता पर नहीं थोपा जा सकता।
इस फैसले का क्या असर पड़ेगा
गौरतलब है कि श्रम कानूनों के तहत जब कोई कर्मचारी लगातार 270 दिन तक किसी नियोक्ता के यहां काम कर चुका है तो उसे बगैर उचित कारण के बर्खास्त नहीं किया जा सकता। अब तक यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी नियोक्ता की थी। हाई कोर्ट के फैसले का असर श्रम न्यायालय में चल रहे सैकड़ों प्रकरणों पर पड़ेगा। एडवोकेट पटवर्द्धन के मुताबिक, इंदौर और उज्जैन श्रम न्यायालय में ही इस तरह के 500 से ज्यादा प्रकरण चल रहे हैं। इन सभी में नियोक्ताओं को हाई कोर्ट के फैसले का फायदा मिलेगा।
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