2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार अर्थात 2019 के चुनाव में प्रतिपक्षी एकता ज्यादा दिख रही है। विभिन्न चुनावों में भाजपा की लगातार जीत के ग्राफ के कारण सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस से लेकर सबसे नई पार्टी तक को अपने अस्तित्व की चिंता सता रही थी। जब से राज्य स्तर पर मोदी विरोधी दलों में गठबंधन के प्रयास शुरू हुए हैं, भाजपा के लिए चुनौती बढ़ गई है। अगर 2019 में भाजपा को अपनी सरकार बनानी है तो उसे क्षेत्रीय दलों के साथ न सिर्फ गठबंधन बढ़ाना होगा बल्कि पुराने साथियों के साथ संबंध और प्रगाढ़ करने होंगे। कुछ वैसे ही जैसे स्वर्गीय वाजपेई ने किया था।
वाजपेई को विचारधारा की दृष्टि से राजनीति के विपरीत धुव्रों को साथ रखने में महारत थी। उनकी सरकार में दक्षिणपंथी विचारधारा के विरोधियों ने भी महत्वपूर्ण मंत्रालय अच्छी तरह संभाले। उस समय में जॉर्ज फर्नांडीज जैसा समाजवादी नेता एनडीए के संयोजक रहे, भारतीय राजनीति की तीन देवियों- मायावती, ममता और जयललिता को भी उन्होंने साध कर रखा। स्व.अटल जी की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश में जुटी भाजपा को अब अटल नाम केवलम का सहारा ही इस मुद्दे पर काम दे सकता है।
इस समय भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए से उसके सहयोगी या तो साथ छोड़ रहे हैं या फिर आलोचक की मुद्रा में आ चुके हैं। सपा, बसपा, आरजेडी, शिवसेना और इनेलो जैसे कई क्षेत्रीय दल अपना सियासी वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जो क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं वो भी इस जद्दोजहद में लगे हुए हैं कि कैसे कांग्रेस और भाजपा से पार पाते हुए वापसी की जाए। देश की राजनीति दो धुरी होती जा रही है। भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक का साथ। कहने को इस वक्त सबसे ज्यादा 45 दल भाजपा अर्थात एनडीए से जुड़ी हुई हैं। फिर भी क्षेत्रीय दलों को जोड़े रखने की चुनौती सत्तारूढ़ पार्टी पर ही ज्यादा हैं। क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का साथ कम होते ही 2019 में भाजपा के लिए खतरा काफी बढ़ जाएगा।
इस समय भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना पार्टी से नाराज है। तेलगू देशम पार्टी न सिर्फ एनडीए छोड़ गई है बल्कि मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोले हुए है। अकाली दल हरियाणा में अलग चुनाव लड़ने की बात कर रहा है। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का बिहार कुछ भरोसा नहीं कि वह किसके साथ रहेगी। यूपी में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर आए दिन बीजेपी नेताओं पर निशाना साधते रहते हैं। पार्टी के दलित सांसदों की नाराजगी जग जाहिर हो चुकी है। इन्हें मनाना 2019 के परिप्रेक्ष्य में भाजपा काफी जरूरी है। ऐसे ‘अटल’ नाम और उनकी गठबंधन नीति का सहारा ही जरूरी है। अमित शाह की यह कोशिश है कि छोटे से छोटे दलों को भी अपने साथ जोड़ कर रखा जाए, उनकी नाराजगी दूर की जाए।
2014 में भाजपा की जीत के पीछे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन का बड़ा हाथ था। जब से यूपी में सपा-बसपा ने हाथ मिलाया है तब से बीजेपी की चिंता काफी बढ़ गई है, स्वाभाविक है यूपी में 80 लोकसभा सीटें हैं जो किसी पार्टी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचा सकती है। इसीलिए शाह ने यूपी में मिशन 74 का नारा दिया है। पिछले चुनाव से एक सीट ज्यादा जीतने का नारा। क्या यह गठबंधन बिना संभव है? शायद नहीं।
ऐसे में अटल बिहारी वाजपेई की तरह गठबंधन धर्म निभाकर घोर विरोधी विचारधारा वाले दलों को भी साथ में शामिल किया जा सकता है। इसलिए भाजपा को छोटे दलों के साथ गठबंधन के दरवाजे और दिल दोनों खुला रखना होगा, इसके बगैर 2019 में 2014 जैसी सफलता संभव नहीं है।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।