भोपाल। मध्यप्रदेश में सारा खेल 115 का है। 70-70 की गारंटी दोनों तरफ है। लड़ाई सिर्फ 45 सीटों पर है। इनमें से 44 सीटें पहले से ही लिस्टेड हैं जहां के मतदाताओं का मूड अक्सर बदल जाता है। 2013 में जब मोदी लहर चल रही थी, तब भी इन सीटों पर कोई खास असर दिखाई नहीं दिया। कुछ सीटों पर तो मतगणना में गड़बड़ी के आरोप भी लगे। बड़ा सवाल यह है कि क्या इन्हीं प्रत्याशियों को फिर से टिकट दिया जाए या प्रत्याशी बदल दिया जाए। क्या पार्टियों को यहां कुछ और भी करना होगा। इन 44 सीटों के मतदाताओं के मुद्दे क्या हैं और वो किस बात से प्रभावित होकर वोट देते हैं। इन सीटों का वोट प्रतिशत कितना था। क्या वोट प्रतिशत बढ़ाने से फायदा होगा। पूर्वामानुमान लगाए जा रहे हैं परंतु यही 44 सीटें हैं जहां सबसे बड़े हमले किए जा सकते हैं। देखना यह है कि कौन सी पार्टी इन सीटों पर क्या रणनीति अपनाती है।
शिवराज सिंह का विरोध सबसे बड़ी चुनौती
विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत कोई मायने नहीं रखता। जीत मायने रखती है। किस पार्टी के खाते में कितनी सीटें। 22 सीटें ऐसी हैं जहां भाजपा का प्रत्याशी 5000 वोटों से कम के अंतर पर हार गए जबकि 22 सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस प्रत्याशियों की जीत 5000 से कम के अंतर पर हुई। इस तरह कुल 44 सीटें ऐसी हैं जहां मतदाताओं का मूड किसी लहर से प्रभावित नहीं हुआ। भाजपा ने अपनी जीत के लिए इस बार आदिवासी ओर दलित वोटों पर फोकस किया है। सीएम शिवराज सिंह की तमाम योजनाएं इसी दिशा में चलाई गईं लेकिन इसका कुछ खास फायदा नजर नहीं आया अत: अब 2 करोड़ वोटों को अपने खाते में दर्ज कराने के लिए 'बिजली बिल माफी' योजना चलाई गई है।
कांग्रेस में वही पुराना गुटबाजी का टंटा
कांग्रेस में अब भी गुटबाजी का टंटा जारी है। गुटबाजी दूर करने का कमलनाथ का दावा ना केवल फेल हो गया है बल्कि उन्होंने अपना गुट मजबूत कर लिया है। इधर ज्योतिरादित्य सिंधिया भी खातापूर्ति की ही राजनीति कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह का गुट सबसे बड़ा है और वो किसी भी स्थिति में कमलनाथ या सिंधिया का अपना नेता मानने के लिए तैयार नहीं है। लड़ाई वही पुरानी है। सूत्रों का कहना है कि कमलनाथ और सिंधिया दोनों यह चाहते हैं कि राहुल गांधी भले ही सीएम कैंडिडेट घोषित ना करें लेकिन स्पष्ट कर दें कि यदि कांग्रेस जीती तो वो किसका नाम लेंगे।
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