नई दिल्ली। यदि परिवार पर कोई कर्ज है या अन्य किसी भी प्रकार की कानूनी जरूरत है तो उसे पूरा करने के लिए परिवार के मुखिया को यह अधिकार है कि वो पैतृक संपत्ति बेच दे। पैतृक संपत्ति के वारिस इस तरह के फैसले पर मुखिया के खिलाफ वाद दायर नहीं कर सकते। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया। बता दें कि यह मामला 54 साल तक चला और देश की सबसे छोटी अदालत से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
यह मामला पुत्र ने अपने पिता के खिलाफ 1964 में निचली अदालत में दायर किया था, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, लेकिन तब तक वादी और प्रतिवादी, यानि पिता और पुत्र दोनों इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने मुकदमें को जारी रखा। इस मामले में लुधियाना में पिता प्रीतम सिंह ने 1962 में अपनी पैतृक संपत्ति की अपनी 164 कैनाल जमीन 19,500 रुपये में बेच दी थी, पिता के ज़मीन बेचने के फैसले को पुत्र केहर सिंह ने अदालत में चुनौती दी, दलील दी कि पैतृक संपत्ति को पिता नहीं बेच सकते क्योंकि पैतृक संपत्ति में बच्चों की भी हिस्सेदारी होती है। इसलिए बच्चों की सहमति के बिना पिता पैतृक जमीन नहीं बेच सकते।
निचली अदालत ने इस मामले में फैसला पुत्र के पक्ष में दिया और ज़मीन की बिक्री रद्द कर दी। इसके बाद मामला अपील अदालत में आया, सुनवाई के दौरान सामने आया कि परिवार का कर्ज चुकाने के लिए यह जमीन बेची गई थी। अपील कोर्ट ने निचली अदालत का फैसला पलट दिया। मामला हाईकोर्ट गया और 2006 में हाईकोर्ट ने भी यह फैसला बरकरार रखा कि परिवार की कानूनी जरूरत के लिए कर्ता यानि कि परिवार का मुखिया पैतृक संपत्ति बेच सकता है।
इसके बाद मामला सुप्रीमकोर्ट पहुँचा और मुदमेबाजी के 54 साल बाद सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आया, सुप्रीमकोर्ट ने पुत्र की अपील को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक बार यह सिद्ध हो गया कि पिता ने परिवार की कानूनी ज़रूरतों के लिए पैतृक संपत्ति बेची है तो संपत्ति के हिस्सेदार इसे अदालत में चुनौती नहीं दे सकते।
सुप्रीमकोर्ट ने यह फैसला देते हुए कहा कि हिन्दु कानून के अनुच्छेद 254 में पिता द्वारा संपत्ति बेचने का प्रावधान है। इस मामले में पिता प्रीतम सिंह के परिवार पर कर्ज थे, साथ ही उन्हें खेती की जमीन में सुधार के लिए पैसे की भी जरूरत थी। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि प्रीतम सिंह के परिवार का कर्ता होने के कारण मुखिया को पूरा अधिकार था कि वह कर्ज चुकाने के लिए पैतृक संपत्ति बेचने का फैसला खुद ही ले सकता था और इस तरह 54 साल बाद इस मुक़दमों का अंत हुआ।
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