देश की चुनावी राजनीति दलित-केंद्रित हो गयी है, इसलिए सभी राजनीतिक दल दलित-हितैषी बन गये हैं। एक होड़ मची है कि उसका चेहरा दूसरों से अधिक दलित हितकारी कैसे दिखे। राजनीतिक दलों को इसकी कोई चिंता नहीं है कि पूर्व में इसी मुद्दे पर उनका रुख क्या रहा है? देश का दलित समुदाय किस हाल में है, यह सब भी उनकी चिंता का केंद्र नहीं है?
मार्च के महीने सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक) कानून, 1990 के बारे में दिशा-निर्देश दिये थे, ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को फंसाया न जा सके। पहले व्यवस्था थी कि दलित उत्पीड़न की शिकायत आते ही आरोपित व्यक्ति को बिना प्रारंभिक जांच के तुरंत गिरफ्तार किया जाये। उसकी जमानत की व्यवस्था भी नहीं थी। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि इस सख्त कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है, इसलिए उसने निर्देश दिया कि गिरफ्तारी से पूर्व प्रारंभिक जांच हो, सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाये और जमानत देने पर भी विचार किया जाये?इन निर्देशों को एससी-एसटी एक्ट को ‘नरम’ बनाना माना गया। मोदी सरकार का शुरुआती रुख था कि शीर्ष अदालत ने कानून को बदला नहीं है, बल्कि उसका दुरुपयोग न होने देने के लिए कुछ व्यवस्थाएं दी हैं।
यह पैंतरा भाजपा की मूल राजनीति के अनुकूल था, क्योंकि उसका मुख्य जनाधार सवर्ण हिंदू जातियां रही हैं, जो इस कानून की चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं, किंतु जैसे ही विरोधी दलों ने मोदी सरकार को दलित-विरोधी बताना शुरू किया और सत्तारूढ़ एनडीए के दलित घटक दलों ने भी विरोध में आवाज उठायी, तो भाजपा सतर्क हो गयी। 2019 में दलित वोट निर्णायक साबित होने हैं, इसलिए भाजपा ने फौरन पैंतरा बदला। सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गयी। कोर्ट का रुख पूर्ववत रहा तो संसद के चालू सत्र में ही नया विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने की रणनीति बनी। फिलहाल नया विधेयक लोकसभा से पारित हो गया है। सरकार यह प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही कि एससी-एसटी एक्ट को पहले से अधिक सख्त कर दिया गया है।
इसके विपरीत सुप्रीम कोर्ट की उसी पीठ ने पिछले साल जुलाई में यह कहते हुए कि दहेज निरोधक कानून की सख्ती का दुरुपयोग भी होता है, उसे ‘नरम’ बनाने के निर्देश दिये थे। अब दहेज कानून में बिना आरोपों की प्रारंभिक जांच के तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती। देशभर की महिला संगठनों ने दहेज कानून को उत्पीड़क के पक्ष में उदार बनाने के खिलाफ आवाज उठायी थी। धरना-प्रदर्शन भी हुए थे। अब चूंकि दलितों की तरह ये महिलाएं हमारे राजनीतिक दलों के लिए एकजुट वोट-बैंक नहीं हैं, इसलिए कोई राजनीतिक दल इन महिलाओं के साथ खड़ा नहीं हुआ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।