15 अगस्त 2018 हम सबके सामने है, 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने से पहले आजादी का जो‘अर्थ’ था, इस समय वह नहीं है। राजनीतिक रूप से आज हम सभी भारतवासी प्रतिवर्ष 15 अगस्त को आजादी की वर्षगांठ मनाते हैं। भारत में आजादी के अर्थ निरंतर बदलते रहे हैं। सबने अपने-अपने ढंग से आजादी का मतलब निकाला है। गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है। अशिक्षित व्यक्ति के लिए आजादी का अर्थ अशिक्षा से आजादी है। ऐसे ही सभी वर्गों और व्यक्तियों के लिए आजादी के अलग-अलग मायने है, लेकिन इस समय बेकारी, महंगाई, भ्रष्टाचार से आजादी अनिवार्य हो गई है।
जिस अर्थ और भाव के साथ सबने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो ‘अर्थ’ दिया था, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडम्बना ने उसे विद्रूप बना दिया है। भागदौड़ भरी जिन्दगी में किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। हर कोई अपने आप में ही खोया हुआ है। पैसा कमाने की अंधी दौड़ में मानव संवेदनाएं कहीं गुम हो गई हैं। देश हित और समाज के उत्थान की बातें महज किताबी होकर रह गई हैं। यदि राजनेताओं की ही बात करें तो ये विडम्बना ही है कि हमारे देश के राजनेता महज सत्ता पाने की कवायद में जुटे नजर आते हैं उन्हें समाज और सामाजिक मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है।
चुनाव नजदीक आते ही हमारे नेता लोक लुभावनी घोषाणाएं करते हैं और कुर्सी मिलते ही सब भुलाकर अपनी जेबें भरने में व्यस्त हो जाते हैं। कैसा है, हमारा लोकतंत्र जहां आवाज उठाने पर भी इंसाफ नहीं मिलता। देश में बढ़ रहे अपराध और महिलाओं पर हो रहे जुल्मों की घटनाएं हालात बयां करने के लिए काफी है। हमारी मानसिकता किस हद तक गिर चुकी है। स्वतंत्र होने के बाबजूद आज भी भारत में महिलाओं को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार शायद नहीं है! महज बाहर ही नहीं घर में भी महिलाओं को स्वतंत्रता से जीने का हक मयस्सर नहीं है। आंकड़े कह रहे हैं कि किस हद तक भारत में घरेलू हिंसा के मामले बढ़े हैं। हमारी सरकारें बड़े-बड़े विज्ञापनों में महिलाओं के हक की बातें करती नजर आती हैं। यदि आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले दस वर्षों में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की वारदातों में तेजी से इजाफा हुआ है जो बेहद शर्मनाक है।
एक और कडुवा सच है जिससे हम सभी वाकिफ होने के बावजूद उससे मुंह फेर लेते हैं। भारत में आज भी लगभग आधी आबादी गरीबी में जीवन यापन करने को विवश है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें ,किन्तु सड़कों पर सर्दी, गर्मी और बरसात में नंगे पैर व नंगे बदन दौड़ते व चलते हुए फटे हाल बच्चों को देखकर तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि हम आज भी गुलाम है।
यदि हम सचमुच आजाद हो चुके हैं तो हमारे देश की लगभग आधी आबादी आज भी भूखों पेट सोने को विवश क्यों है?हमारी सरकारों द्वारा गरीबों के उत्थान, उन्हें रोजगार देने और उनको मुख्यधारा में जोड़कर उनका पुर्नवास करने की बड़ी-बड़ी बातें की जाती है किन्तु हकीकत इन सब से परे है। दो-जून की रोटी के अभाव में एवं भूखमरी के चलते गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोग बड़ी तादाद में अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं जो हमारे समाज के लिए और देश के भविष्य के लिए शुभसंकेत नहीं है। ये तमाचा है उन सरकारों के मुंह पर जो ऐसे लोगों के लिए कुछ करने का दावा करने के बावजूद कुछ करना नहीं चाहती।
फिर भी आप सब को शुभकामनायें
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।