कोई भी नाम बदलने से क्या-क्या बदलता है ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

Bhopal Samachar
देश में इन दिनों स्थान, योजना आदि के नाम बदलने का नया उपक्रम जोरों पर है। नाम परिवर्तन के इस उपक्रम के पीछे राजनीतिज्ञों की मंशा आखिर क्या होती है? क्या  किसी जगह या योजना का नाम बदल देने से उस क्षेत्र के विकास या प्रगति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं? क्या नाम परिवर्तन के पश्चात उस क्षेत्र विशेष के लोगों को रोज़गार मिलने लग जाता है? क्या उनकी शिक्षा,स्वास्थय,सड़क-बिजली-पानी जैसी समस्याओं में कुछ सुधार होने लगता है? यदि इस प्रकार के कुछ लाभ जनता को होते हों तो निश्चित रूप से जगहों का नाम एक ही बार नहीं बल्कि बार-बार बदला जाना चाहिए, परंतु यदि यह उपक्रम केवल किसी वर्ग विशेष को खुश करने के लिए और किसी दूसरे वर्ग या समुदाय के लोगों को आहत करने या चिढ़ाने के उद्देश्य से हो रहा  हो तो विचार करना चाहिए हम किस परम्परा की नींव डाल रहे हैं ?

प्रत्येक नामकरण के पीछे कोई न कोई इतिहास हो अब यह जरूरी नहीं दिख रहा है मन मर्जी का खेल चल रहा है। किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति के सम्मानार्थ उस स्थान या योजना का नाम रख दिया जाये तक तो बात ठीक है , परंतु एक नाम को मिटा कर उसके स्थान पर दूसरा नाम रख देना कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कि एक इतिहास को मिटाकर उस पर नया इतिहास चढ़ाने या मढ़ने की कोशिश की जा रही हो।

वैसे नाम परिवर्तन का यह सिलसिला बहुत वर्षों से जारी है और शासक गण अपनी सुविधा के अनुसार,झूठी लोकप्रियता अर्जित करने के लिए अथवा क्षेत्र,समुदाय,धर्म अथवा जाति विशेष के लोगों को लुभाने के लिए अनेक स्थानों का नाम बदलते रहे हैं। सरकारों द्वारा तो कभी किसी योजना का नाम बदल दिया जाता है, कभी किसी गली-मोहल्ले का नाम बदलने की खबर सुनाई देती है और कभी शहरों व जि़लों के नाम बदल दिए जाते हैं। जहां तक कलकत्ता को कोलकाता मद्रास को चेन्नई तथा पांडेचरी को पुड्डूचेरी का नाम देने का प्रश्र है तो यह नाम क्षेत्रीय भाषा व उच्चारण के अनुरूप परिवर्तित किए गए हैं जैसा कि बंबई के नाम को मराठी भाषा में मुंबई के नाम से पुकारा जाना।इसके विपरीत अकबर रोड,दिल्ली का नाम परिवर्तित कर महाराणा प्रताप रोड रखा जाना,उर्दू बाज़ार का नाम मिटाकर उसे हिंदी बाज़ार किया जाना,हुमायूंपुर का नाम हनुमान नगर कर देना, मीना बाज़ार को माया बाज़ार,अलीनगर को आर्य नगर के नाम से पुकारा जाना, किस बात का संकेत देता है?

उत्तर प्रदेश में तो यह तमाशा जनता कई बार देख चुकी है। जिस समय मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं उन्होंने अमेठी का नाम छत्रपति साहू जी नगर रख दिया था और उनके बाद जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुलायम सिंह यादव आए तो उन्होंने मायावती के आदेश को रद्द करते हुए पुन: अमेठी बना दिया। इसके बाद जब मायावती पुन: सत्ता में आई फिर इसी स्थान को छत्रपति साहू जी महाराज नगर किया गया और इसके बाद जब पुन: अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो इसे फिर से अमेठी का नाम दे दिया गया। नाम मिटाने और स्वेच्छा का नाम रखने के इस उपक्रम में इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सबसे आगे चल रहे हैं। गोरखपुर में कई मोहल्लों,बाज़ारों आदि के नाम बदलकर उन्होंने पहले भी यह साबित करने की कोशिश की है कि वे उर्दू के शब्दों से या मुस्लिम,इस्लाम अथवा उर्दू-फारसी के आसपास के नज़र आने वाले किसी भी शब्द या नाम को अच्छा नहीं समझते भले ही उससे इतिहास की कितनी ही स्मृतियां क्यों न जुड़ी हों। ज़रा यह भी जानने की कोशिश करते हैं कि किसी स्थान या योजना का नाम बदलने की कीमत आज के दौर में हमें क्या चुकानी पड़ती है? सब कुछ बदलना पड़ता है, जिसकी कीमत लाखों में होती है। ऐसे उपक्रमों से और जनता के पैसों की इस बरबादी से किसी को क्या मिलता है? सिर्फ अहं ही तो तुष्ट होता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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