यह साफ़ हो गया है कि देश में राजनीति का बदलता चरित्र लोकतंत्र से दूर जा रहा है। राजनीतिक शीर्ष यह तय करने में असफल हैं कि भविष्य में देश का स्वरूप क्या होगा ? लोकतंत्र का स्थान अंध भक्ति से पूर्ण परिवारवाद लेगा या असहमति की सारी आवाजें कुचलता हुआ कोई नया वाद। 2014 से भारतीय समाज में एक नया ही ध्रुवीकरण प्रारम्भ हुआ है। किसी को सत्ता की प्राप्ति का नशा है तो किसी ने अंध परिवार भक्ति में अपने पुराने दल की कमान नवोदित के हाथों सौंप कर आँखें मूंद ली है। ताज़ा घटना क्रम को ध्रुवीकरण के आवरण में नहीं लपेटा जा सकता है ,जो राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए करते रहे है। इस हेतु गठबंधन बनना और बिगडना भी कोई नई बात नहीं है। नई बात तो यह है कि इतने बरसों में हम न इसकी कोई मर्यादा बना सके हैं और न इसकी कोई कानूनी काट खोज सके हैं। लगता है जैसे लोकतंत्र का चरित्र मटियामेट करने तैयारी में ही सब लगे हैं।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह टिप्पणी की कि असहमति को कुचलने का सरकार का यह रवैया बड़े खतरे का संकेत देता है। किसी बड़े उलाहने के साथ हमारी नाकामी का सुबूत है। मात्र तर्क के लिए सरकार की कार्रवाई से सहमत भी हो जाएँ तो क्या यह उन संस्थानों की नाकामी नहीं है जिन पर ऐसी सारी गतिविधियों पर निगहबानी की जवाबदारी है। क्या किसी बड़े राजनीतिक दल को यह शोभा देता है कि उसका “शीर्ष शिशु” अपने बड़ों की समझाइश के बाद विदेश में कुछ भी कह बैठता है ? क्या सत्ता के जोश में कोई दल उस अनुभव को ही धता बता रहा है, जिसकी ऊँगली पकड़ कर सत्ता के सिंहासन का रास्ता देखा है ? ये सवाल आज अनुत्तरित रहे तो शायद इतिहास भारतीय समाज की ये भूलें पत्थर पर लिख देगा।
असहमति लोकतंत्र का अविभाज्य अंग है। इससे नकारा या दबाया तो सारे पात्र और चरित्र बदलेंगे लोकतंत्र का क्या होगा सोच कर डर लगता है। हम किसी बात या किसी की बहुत बातों सहमत हों या न हों, असहमति की आवाज को कहीं भी दबाया गया तो देश की सामूहिक चेतना को आवाज उठती है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के सामने पहुंचे सारे हस्ताक्षर देश में गूंज रही वह “नागरिक प्रतिध्वनि” थी जो हमें आगाह कर रही है कि हमारी दिशा में कहाँ भटकाव है। हिंसा का दर्शन कभी भारतीय दर्शन नहीं रहा है। भारतीय दर्शन में सहिष्णुता के साथ वीरभाव भी है, इन दोनों भावों के बीच देशप्रेम है। जब देश ही नही रहेगा तो बंदूक से निकली क्रांति का क्या होगा सोचिये ?
हमें यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि किसी भी स्तर पर, कैसी भी हिंसा राज्य को वैसी गर्हित हिंसा करने का अवसर देती है जिसकी ताक में राज्य हमेशा रहता है। आप सामाजिक हिंसा की रणनीति बनाएंगे तो राज्य की सौ गुना बलशाली अमर्यादित हिंसा से नागरिकों को बचा नहीं सकेंगे।इससे जुड़ा दूसरा सवाल है प्रधानमंत्री की सुरक्षा। उक्त पद पर आसीन किसी भी व्यक्ति की रक्षा में कोई चूक न हो। हमें अपने इतिहास से और इसकी मजबूत सबक लेना चाहिए और इसकी मजबूत प्रणाली विकसित करना चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।