संसद और सरकार पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए बहुत कुछ कर रही है, इसके परिणाम भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं | साथ ही यह सवाल भी खड़ा होता है की बरसों सांसद और सालों मुख्यमंत्री रहने के बाद खुद को पिछड़ा बताने वाले मुख्यमंत्री सांसद और विधायक किस पैमाने पर पिछड़े हैं और उन्हें यह लाभ कब तक और क्यूँ मिलना चाहिए ? इस निमित्त बने आयोग जिसे कि अब संवैधानिक दर्जा मिलने वाला है के विचार का यह प्रमुख विषय होना चाहिए।
लोकसभा में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक के सर्वसम्मति से पारित होने से इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि उसे राज्यसभा में भी विपक्ष का समर्थन मिलेगा। इस विधेयक को दूसरी बार संसद में इसलिए लाना पड़ा, क्योंकि पिछली बार राज्यसभा में कुछ विपक्षी दलों ने उसके मूल स्वरूप में बदलाव कर दिया था। उम्मीद है कि इस बार ऐसा नहीं होगा और पिछड़ा वर्ग आयोग जल्द ही संवैधानिक दर्जे से लैस हो जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग है।
अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण लागू हुए 25 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, तब अब उससे संबंधित आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का रास्ता साफ हो रहा है। नि:संदेह संवैधानिक दर्जा हासिल करने के बाद पिछड़ा वर्ग आयोग कहीं अधिक सक्षम होगा, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह आरक्षण संबंधी समस्याओं का समाधान करने में भी समर्थ होगा। विभिन्न जातीय समूह जिस तरह ओबीसी आरक्षण के दायरे में आने के लिए जोर दे रहे हैं और इस क्रम में धरना-प्रदर्शन भी कर रहे हैं, उससे लगता नहीं कि पिछड़ा वर्ग आयोग और साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों के लिए कोई आसानी होने जा रही है। आखिर इसकी अनदेखी कैसे की जा सकती है कि जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर समर्थ बनाया जा रहा है, तब कई सक्षम मानी जाने वाली जातियां अपने लिए आरक्षण मांग रही हैं। यह एक तथ्य है कि इन दिनों उग्र तरीके से आंदोलन कर रहे मराठा समूह इसके बावजूद आरक्षण चाह रहे हैं कि वे उसकी पात्रता की परिधि में नहीं आते। कुछ ऐसी ही स्थिति आरक्षण के लिए आंदोलन की राह पर चलने वाले अन्य जातीय समूहों की भी है।
लोकसभा में पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक पर चर्चा के दौरान विभिन्न् राजनीतिक दलों की ओर से क्रीमीलेयर हटाने और आरक्षण की सीमा बढ़ाने की जो मांग की गई, उससे यही संकेत मिलता है कि आरक्षण संबंधी मांगों का सिलसिला थमने वाला नहीं है। यह तय है कि यदि किसी एक जातीय समूह को आरक्षण मिला तो कुछ अन्य जातीय समूह आरक्षण की मांग लेकर आगे आ जाएंगे। इसमें संदेह है कि ओबीसी आरक्षण का वर्गीकरण करने से बात बनेगी। अच्छा होगा कि आरक्षण की व्यवस्था को ऐसा स्वरूप देने पर विचार हो, जिससे वह पात्र लोगों को ही मिल सके और उसे सरकारी नौकरी पाने का जरिया भर न माना जाए। अभी तो ऐसा ही अधिक है। इसके अलावा एक विसंगति यह भी है कि आरक्षण का लाभ ले चुके लोग भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे हासिल कर रहे हैं। इनमें वे भी हैं, जो संपन्न् और प्रभावशाली हैं। आरक्षण शोषित-वंचित एवं पिछड़े तबकों के उत्थान का माध्यम है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के साथ अन्य पिछड़ी जातियों को हासिल आरक्षण व्यवस्था की इस दृष्टि से समीक्षा जरूरी है कि इससे मूल उद्देश्य की प्राप्ति सही तरह हो रही है या नहीं? इसी के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण के दायरे में कैसे लाया जाए। क्रीमीलेयर द्वारा नौकरी से लेकर उच्च पद तक आरक्षण के हथियार से हथियाए जा रहे हैं, वास्तविक हकदार वंचित हैं, कहीं तो न्याय होता दिखे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।