श्रीमद् डांगौरी/भोपाल। पिछले दिनों विदिशा में दीपक बावरिया ने कार्यकर्ताओं के हंगामे पर कहा था कि वो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से कुछ सीखें। वहां कैसे सभी कार्यकर्ता अनुशासन में रहते हैं। कांग्रेस में इस बयान पर कुछ लोगों ने आपत्ति उठाई परंतु बात सही है। यदि कहीं कुछ अच्छा मिले तो उसे स्वीकार करना चाहिए। पंडित नेहरू ने भी संघ के अनुशासन की प्रशंसा की थी लेकिन केवल कार्यकर्ताओं को ही सीखने की जरूरत नहीं है। राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश प्रभारी को भी सीखने की जरूरत है।
जी हां, यहां बात हो रही है, चुनाव के लिए फंड की। बताने की जरूरत नहीं कि मप्र में कांग्रेस 10 साल से कंगाल है। दीपक बावरिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि पार्टी के खजाने में कम से कम इतना पैसा तो डाल दिया जाए कि चुनाव में खड़े रहने की हिम्मत जुटा सकें। यह चुनौती किसी भी संगठन के सामने होती है। बावरिया ने इसका एक सरल रास्ता निकाला। हर दावेदार से 50 हजार रुपए जमा कराना शुरू कर दिए। दावेदारी की यह शर्त रख दी। बस इसी फैसले के साथ बावरिया का मप्र में खुला विरोध शुरू हुआ। आप इस तरह की शर्तें नहीं लगा सकते। यह गलत है।
कृष्ण मुरारी मोघे ने क्या किया
कृष्णमुरारी मोघे लम्बे समय से भाजपा के लिए चंदा जुटाने वाली समितियों के प्रमुख प्रधान बनते आ रहे हैं। इस बार भी हैं। उन्होंने भी उगाही शुरू की है लेकिन अंदाज अलग है। उन्होेंने अर्थ संग्रह के नाम से अभियान शुरू किया है। हर विधानसभा से 20 लाख रुपए का चंदा वसूलने का लक्ष्य तय किया है। कहा है जिस विधानसभा से जितना चंदा आएगा, 20 लाख या इससे ज्यादा, वह पैसा उसी विधानसभा में चुनाव प्रचार पर खर्च कर दिया जाएगा। अब सारे दावेदार चंदा वसूली में लग जाएंगे। जो ज्यादा चंदा लाएगा उसी को टिकट मिल जाएगा और उसका चंदा उसी के प्रचार के काम भी आएगा। पार्टी की सेवा भी हो जाएगी और चुनाव प्रचार का प्रबंध भी। प्रिय दीपक बावरिया, कृष्णमुरारी मोघे से कुछ सीखो। लोगों को काम पर लगाने की विधि आनी चाहिए। कुर्ता पहनकर फोटो खिंचाने से कोई नेता नहीं बन जाता।
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