प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है परंतु यह कुछ इस तरह का फैसला है कि ना तो कोई व्यक्ति ताली बजा पा रहा है और ना ही कोई पार्टी इसका श्रेय लूट पा रही है। यह दोनों पक्षों की लड़ाई का एक ऐसा फैसला है जिसमें दोनों पक्ष जीत भी गए और दोनों को नुक्सान भी हो गया। दोनों पक्षों के नेता अब तक यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो इस बात को आगे बढ़ाया या नहीं। यही कारण है कि इस फैसले के बार सारे पक्ष चुप हैं।
फैसला लागू कर दिया तो क्या होगा
फ़ैसला जिस रूप में आया है, उसका मतलब यह भी है कि आरक्षण के आधार पर प्रमोशन को अगर लागू किया गया तो देश में मुक़दमों की बाढ़ आ जाएगी क्योंकि प्रतिनिधित्व के आंकड़ों को अदालत में चुनौती दी जा सकेगी। राजनैतिक दलों के लिए यह फ़ैसला दोधारी तलवार साबित हो सकता है। मौजूदा परिस्थिति में ऐसा लगता नहीं है कि सरकारें इस फ़ैसले को लागू करके प्रमोशन में आरक्षण देना शुरू कर देगी। कुल मिलाकर खेल प्रतीकवाद है।
संविधान में कहां लिखा है आरक्षण दिया जा सकता है
1. सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और जनजाति को आबादी के अनुपात में सीधी भर्तियों और प्रमोशन में रिजर्वेशन 1954 से लागू था। यह रिजर्वेशन संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के तहत दिया जाता था, जिसमें शासन को ये अधिकार दिया गया कि अगर किसी पिछड़े (बैकवर्ड) समूह की किसी सरकारी नौकरी में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं है, तो उन्हें रिजर्वेशन दिया जा सकता है।
भारत में कितने लोग आरक्षण के हकदार हैं
2. इस व्यवस्था का लाभ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को मिला, जिनकी आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 25.2 फ़ीसदी है। यानी इस प्रावधान का वास्ता देश के हर चौथे आदमी से सीधे तौर पर है। यह 30 करोड़ से ज़्यादा की आबादी को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने और उनको राष्ट्रनिर्माण में हिस्सेदार बनाने का प्रावधान है ताकि उन्हें लगे कि राजकाज चलाने में वे भी शामिल हैं। संविधान सभा ने आरक्षण के प्रावधानों को इसी मक़सद से पारित किया था।
प्रमोशन में आरक्षण क्यों
3. सरकारी नौकरियों में आरक्षण और उसमें भी प्रमोशन यानी ऊपर के पदों पर आरक्षण का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनसे न सिर्फ देश का राजकाज चलता है, बल्कि यह क्षेत्र देश में पर्मानेंट नौकरियों का सबसे बड़ा स्रोत भी है। इंडियन लेबर ब्यूरो के आख़िरी उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश में संगठित क्षेत्र में कुल 2.95 करोड़ नौकरियां थीं, जिनका लगभग 60 फ़ीसदी यानी 1.76 करोड़ नौकरियां सरकारी क्षेत्र में हैं। सरकारी क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा पीएसयू और स्थानीय निकाय शामिल हैं। केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक प्रतिनिधित्व की दिक्कत ख़ासकर उच्च पदों पर है। मिसाल के तौर पर, बीजेपी सांसद उदित राज ने ये आंकड़ा दिया है कि केंद्र सरकार में सेक्रेटरी स्तर के पदों पर इस समय एससी का सिर्फ़ एक अफ़सर है। इस तरह के आंकड़ों को प्रमोशन में आरक्षण का तर्क माना जाता रहा।
कहां से शुरू हुआ प्रमोशन में आरक्षण विवाद
4. प्रमोशन में रिजर्वेशन पर पहली क़ानूनी चोट एक ऐसे मामले में पड़ी जिसका एससी-एसटी से कोई लेना-देना नहीं था। 16 नवंबर, 1992 को इंदिरा साहनी केस में ओबीसी आरक्षण पर फ़ैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी को प्रमोशन में दिए जा रहे आरक्षण पर सवाल उठाए और इसे पांच साल के लिए ही लागू रखने का आदेश दे दिया। तब से ही यह मामला विवादों में है। हालांकि 1995 में संसद ने 77वां संविधान संशोधन पारित करके प्रमोशन में रिजर्वेशन को जारी रखा।
नागराज मामले में क्या फैसला आया था
5. यह स्थिति नागराज और अन्य बनाम भारत सरकार मुक़दमे पर सुप्रीम कोर्ट के 2006 के फ़ैसले के बाद बदल गई। इस फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण पर रोक नहीं लगाई लेकिन इससे जुड़ी पांच शर्तें रख दीं। एक, आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी से ज़्यादा नहीं हो सकती। दो, एससी-एसटी का पिछड़ापन आंकड़ों से साबित करना होगा। तीन, सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, इसके आंकड़े देने होंगे। चार, यह देखना होगा कि प्रशासन की क्षमता पर बुरा असर न पड़े और पांच एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर लागू हो सकता है।
नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया
6. सुप्रीम कोर्ट में यह मामला स्पेशल लीव पिटिशन यानी एसएलपी के जरिए लाया गया था। याचिकाकर्ता ने नागराज फ़ैसले को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट की बैंच के सामने यह प्रश्न था कि क्या इस याचिका को बड़ी बैंच के पास भेजा जाए। सुप्रीम कोर्ट ने नागराज फ़ैसले को बड़ी बेंच के सामने नहीं भेजा। इस मायने में याचिका को ख़ारिज माना गया। सुप्रीम कोर्ट ने नागराज फ़ैसले को ग़लत नहीं माना है, लेकिन उसमें एक बदलाव किया है।
नागराज फैसले में बड़ा बदलाव क्या किया गया
7. नागराज फ़ैसले में जो पांच बातें हैं, उनमें से सुप्रीम कोर्ट ने सबसे बड़ा बदलाव ये किया है कि एससी-एसटी के पिछड़ेपन को साबित करने की अब ज़रूरत नहीं होगी। राष्ट्रपति की मंजूरी से इन समुदायों की जो लिस्ट बनी है, उसमें होने भर से किसी समुदाय का पिछड़ापन साबित हो जाएगा। यह संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अनुसार है। पिछड़ापन ओबीसी के मामले में साबित करने की ज़रूरत है इसके लिए देश में दो पिछड़ा वर्ग आयोग बनाए जा चुके हैं। दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग को ही मंडल कमीशन कहा जाता है। मौजूदा फ़ैसला इस आधार पर किया गया है कि इंदिरा साहनी केस में चूंकि नौ जजों की बेंच यह मान चुकी है कि एससी और एसटी का पिछड़ापन साबित करने की ज़रूरत नहीं है, इसलिए नागराज फ़ैसले में पांच जजों को बेंच द्वारा इसे पलट देना सही नहीं है।
अब नौकरियों में आरक्षण की सीमा क्या होगी
8. आरक्षण की कुल सीमा क्या होगी, इस पर मौजूदा फ़ैसले में कोई टिप्पणी नहीं की गई है। आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग जाट, मराठा, पटेल और कपू आंदोलनकारी कर रहे हैं। ओबीसी भी आबादी के अनुपात में आरक्षण मांग रहे हैं लेकिन अदालत ने मौजूदा फ़ैसले में इस बारे में कुछ नहीं कहा है। यह मामला आगे सरकार और संसद को ही देखना होगा।
क्या एससी और एसटी रिजर्वेशन में भी क्रीमी लेयर लागू होगा
9. इस फ़ैसले में जो एक सबसे महत्वपूर्ण बात है, वह क्रीमी लेयर को लेकर है और यही आगे चलकर विवाद की सबसे बड़ी वजह बन सकती है। ये फ़ैसला यह कहता है कि एससी और एसटी रिजर्वेशन में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान किया जा सकता है और यह करने का अधिकार सरकारों को ही नहीं, अदालतों को भी है।
एससी/एसटी मामले में क्रीमी लेयर से क्या होगा
एससी और एसटी के रिजर्वेशन में क्रीमी लेयर की बात नागराज फ़ैसले में है, लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया गया। अशोक ठाकुर केस में तत्कालीन चीफ़ जस्टिस बालाकृष्णन ने स्पष्ट किया था कि एससी-एसटी पर क्रीमी लेयर नहीं लग सकता। अभी तक की क़ानूनी स्थिति यही थी कि इन तबकों में क्रीमी लेयर नहीं लगेगा। संविधान में क्रीमी लेयर जैसी कोई अवधारणा नहीं है। ओबीसी मामले में इंदिरा साहनी फ़ैसले में क्रीमी लेयर का प्रावधान पहली बार किया गया लेकिन एससी-एसटी पर ये लागू नहीं है। मौजूदा फ़ैसले ने अब एक नई स्थिति पैदा कर दी है। ज़रूरी नहीं है कि इस फ़ैसले के बाद सरकार या कोर्ट एससी-एसटी में क्रीमी लेयर लगा दे, लेकिन यह तय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में चर्चा की संभावना पैदा कर दी है। ऐसा लगता है कि ये फ़ैसला क्रीमी लेयर के सवाल को सतह पर लाने के लिए ही लिखा गया है।
क्या 2019 लोकसभा से पहले प्रमोशन में आरक्षण लागू हो जाएगा
10. मौजूदा फ़ैसले में हालांकि एससी-एसटी का पिछड़ापन साबित करने के लिए आंकड़े की ज़रूरत को ख़ारिज कर दिया गया है, लेकिन नौकरियों में इन तबकों के कम प्रतिनिधित्व को आंकड़ों के ज़रिए साबित करना होगा और ये आंकड़े नौकरियों के देश भर के या राज्य के कंसोलिडेटेड आंकड़े न होकर पदों और कैडर के आंकड़े होंगे। इन आंकड़ों को अदालतों में चुनौती भी दी जा सकेगी। इसका मतलब है कि एससी-एसटी का प्रमोशन में आरक्षण तत्काल लागू नहीं होने जा रहा है। इसके लिए राज्य और केंद्र सरकारों को आंकड़े जुटाने होंगे और जब ये लागू होगा भी तो देश में मुक़दमों की बाढ़ आ जाएगी।
प्रमोशन में आरक्षण: बीजेपी बैकफुट पर क्यों है
11. राजनीतिक रूप से इस फ़ैसले का लाभ लेने की कोशिश न तो कांग्रेस ने की है, न बीजेपी ने। बीएसपी ने ये कहा है कि ये उसके आंदोलन की जीत है। हालांकि ये बताते हुए मायावती ने ये स्पष्ट कर दिया था कि उस समय तक उन्होंने ये फ़ैसला पूरी तरह पढ़ा नहीं था और यह उनकी त्वरित टिप्पणी थी। बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि अगर वो इस फ़ैसले की यह व्याख्या करती है कि एससी-एसटी के प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता साफ़ हो गया है तो उसे केंद्र सरकार और उन 21 राज्यों में जहां वो किसी न किसी रूप में सत्ता में है, वहां प्रमोशन में आरक्षण देना होगा।
क्या सवर्ण बीजेपी को वोट नहीं देंगे
एससी-एसटी एक्ट को मूल रूप में वापस लेने के उसके फ़ैसले की वजह से सवर्णों के हिस्से में पहले से नाराजगी है। हालांकि ये कहना मुश्किल है कि सवर्ण क्या इतने नाराज़ हैं कि बीजेपी के ख़िलाफ़ वोटिंग करेंगे? बीजेपी का अभी तक का गणित ये है कि सवर्ण उसके साथ रहेंगे और बाक़ी समुदायों को जोड़ने की ज़रूरत है लेकिन प्रमोशन में आरक्षण एक ऐसा मसला है, जो सवर्णों के एक बड़े हिस्से को बीजेपी से दूर कर सकता है। इसलिए संभावना इस बात की है कि बीजेपी वास्तविक धरातल पर प्रमोशन में आरक्षण को लागू नहीं करेगी। कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो यही होता दिख रहा है।
नागराज के बाद कांग्रेस ने क्या किया था, अब क्या रणनीति है
12. जहां तक कांग्रेस की बात है तो नागराज फ़ैसला 2006 में आया और इस पर कुछ भी किए बगैर यूपीए ने आठ साल निकाल दिए। यूपीए सरकार ने इस फ़ैसले को पलटने के लिए एक विधेयक लाया लेकिन सपा के विरोध के बहाने के नाम पर इसे कभी भी पास कराने की कोशिश नहीं की गई। कांग्रेस ने कोई फ़ैसला न करने का फ़ैसला किया था और वह उसी पर चलती रही। अभी भी वह प्रमोशन में आरक्षण देने को लेकर उत्साहित नहीं है। उसे लगता है कि एससी-एसटी वोट बीजेपी से नाराज होकर ऐसे भी उसके पास आएगा। उसे अलग से कुछ देने या वादा करने की क्या ज़रूरत है?
फैसले के बाद एससी/एसटी को क्या मिलेगा
कांग्रेस और बीजेपी दोनों की रणनीति यही है कि वो एससी और एसटी का हितैषी दिखने की कोशिश करेगी, लेकिन दरअसल उन्हें कुछ देगी नहीं। कम से कम ऐसा कुछ नहीं देगी, जिससे सवर्ण नाराज हो जाएं। मतलब यह है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फ़ैसले से सिर्फ़ दो चीज़ें बदली हैं। एक, एससी-एसटी का पिछड़ापन बार-बार साबित करने की ज़रूरत ख़त्म कर दी गई है। और दो, एससी-एसटी में भी क्रीमी लेयर लगाने की बहस छेड़ दी गई है। मध्यप्रदेश और देश की प्रमुख खबरें पढ़ने, MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com