डूबता बैंकिग कर्ज देशद्रोह है या नहीं ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

Bhopal Samachar
अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है की देश में सरकारी बैंक राजनीतिक दवाब के तहत काम करते हैं। ऐसे में यह सवाल पूछना लाजिमी बनता है कि देश की अर्थ व्यवस्था को इतनी बुरी तरह प्रभावित करने के कृत्य देशद्रोह हैं या नहीं ? भूतपूर्व रिजर्व बैंक गवर्नर ने साफ़ कहा है कि 2006-2008 के दौरान बहुत डूबत कर्ज दिए गए।यह  विषय अन्य विषयों से ज्यादा गंभीर है, पर इस विषय को यहाँ से वहां गेंद की भांति उछाला जा रहा है। गंभीरता से कोई लेने को तैयार ही नहीं है। देश का दुर्भाग्य है कि इस पर निर्णय लेने के स्थान पर मेरी कमीज तेरी कमीज से ज्यादा सफेद की तर्ज पर  जुमले बाजी हो रही है। इस पर तो जिम्मेदारी तय करकर एक निश्चित समय में आपराधिक दायित्व का निर्धारण  कर सजा होना चाहिए।

विजय माल्या पर देश के तमाम बैंकों का करीब 10000 करोड़ रुपया निकालता है। नीरव मोदी एक बैंक से करीब 12000 करोड़ रुपये निकाल कर फरार है। ये बड़े कारोबारी हैं। छोटे कारोबारियों से जुड़ा एक आंकड़ा देखें। छोटे उद्यमियों को सरकारी बैंकों ने जो कर्ज दिए, उनमें से करीब २० प्रतिशत डूबत कर्ज निकले। छोटे उद्यमियों को नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों ने यानी निजी कर्ज कंपनियों ने जो कर्ज दिए, उनमें से करीब 5.5 प्रतिशत डूबत निकले। और इन्हीं छोटे उद्यमियों को निजी बैंकों ने जो कर्ज दिए, उनमें से करीब 3.5 प्रतिशत डूबत निकले। ये आंकड़े क्या बताते हैं? ये आंकड़े ये बताते हैं कि सरकारी बैंकों के कर्ज; बड़े उद्योगपति और छोटे उद्योगपति लगभग मुफ्त का माल समझते हैं और उस पर हाथ साफ अपना दायित्व समझते हैं।

इसके विपरीत कारोबारी निजी बैंकों को कर्ज वापस कर रहा है, क्योंकि निजी बैंक अलग तरह से कर्ज देते हैं और अलग तरह से कर्ज वसूली करते हैं। निजी क्षेत्र के बैंकों की रकम वापस आम तौर पर इसलिए आ जाती है कि वहां जिम्मेदारी के भाव होते हैं। सरकार में आम तौर पर एक बिंदु नहीं होता, जहां जिम्मेदारी तय की जा सके। दो और आंकड़े गौरतलब हैं। सरकारी बैंकों के पितामह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कुल डूबत कर्ज दिए गए कर्ज का करीब 10 प्रतिशत है। निजी क्षेत्र के बड़े बैंक एचडीएफसी बैंक द्वारा दिए गए कर्ज कजरे में से करीब डेढ़ प्रतिशत डूबत हैं। दोनों बैंक भारत में ही काम कर रहे हैं। दोनों बैंक ही कारोबारियों को कर्ज दे रहे हैं। पर स्टेट बैंक की रकम ज्यादा डूब रही है क्यों ?। इसलिए कि सरकारी बैंकों के कामकाज का ढीलापन, उनमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश और संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं। क्यों सरकारी बैंकों की दुर्दशा हो रही है। इस सवाल का जवाब छिपा हुआ है पहले के आंकड़ों में। सरकारी बैंकों के माल को तमाम कारोबारी मुफ्त का समझते हैं। बड़ेवाले भी छोटेवाले भी। इस सबका मिला जुला परिणाम यह हो रहा है कि सरकारी बैंक कारोबार में खत्म हो रहे हैं और सिकुड़ रहे हैं।

इन हालातों में आगामी वर्षो में कोई सरकार यह घोषित करेगी कि अब सरकार बैंकिंग कारोबार से बाहर हो रही है। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने मोटी-मोटी तीन बातें कही। एक-बैंकों ने अति आशावादी रुख दिखाया। दूसरी बात-बड़ा कर्ज देने में बहुत असावधानी बरती गई। तीसरी बात-कर्जे  के टारगेट पूरा करने के लिए जरूरी सावधानियों को ताक पर रख दिया जाता है। कई बैंकों ने छोटी-छोटी कंपनियों को बड़े-बड़े कर्ज दिए। जाहिर है ऐसा होने की कुछ वजहें होंगी। बैंकिंग बहुत गंभीरता का काम है। हाल यह है कि छोटा कर्ज यानी स्कूटर या कार के कर्ज में बैंक यहां तक कि सरकारी बैंक भी बहुत सावधानी बरतते हैं। दस लाख के मकान कर्ज की एक किश्त अगर तय तिथि तक बैंक को न मिले, तो बैंक तकादा शुरू कर देते हैं। फोन आने शुरू हो जाते हैं। बैंक अफसर खुद आ धमकते हैं समझाने के लिए कि कर्ज दो वापस। बड़े उद्योगपतियों के सामने सरकारी बैंकों की समझदारी कहीं गिरवी रख दी जाती है। यह अपराध है और इसकी श्रेणी देशद्रोह से कम नहीं है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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