देश की राजधानी दिल्ली में आधा दर्जन मनुष्य [सफाई कर्मचारी] सेप्टिक टैंक अथवा सीवर लाइन साफ करते हुए मारे गए, वैसे पूरे देश में एक पखवाड़े 11 से अधिक मौतें इस काम में लगे मनुष्यों की हुई हैं। ये मौतें भारत के तथाकथित उस समाज के चेहरे पर कलंक हैं, जो दिखावे के लिए सारे मानव एक समान की बात करता है। सीवर लाइन सफाई जैसे जरूरी लेकिन घृणित कार्य के लिए अब तक मनुष्य का उपयोग कहाँ तक उचित है ? हम एक तरफ रोबोट की बात करते हैं, दूसरी ओर ये मौतें ? सफाई कर्मचारी राष्ट्रीय आयोग के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2017 से लेकर अब तक औसतन प्रत्येक पांचवें दिन एक सफाई कर्मी की मौत दर्ज हुई है।
आज भी देश में सफाई कर्मी सबसे निचले पायदान पर आते हैं, चाहे उनका सम्बन्ध किसी भी सम्प्रदाय के साथ क्यों न हों। उनका संबंध भले ही हिंदू, सिख, ईसाई या बौद्ध संप्रदाय से हो, लेकिन उस समाज का हिस्सा होने के बावजूद सफाई कर्मियों की श्रेणी में भेदभाव है उनका दर्जा आम मनुष्य के बराबर नहीं है। जो लोग स्वयं अनुसूचित जाति में आते हैं, वे भी इनको हेय दृष्टि से देखते हैं। देश की दलित राजनीति में ज्यादातर दबदबा कृषि मजदूरों या चर्मकार वर्ग जैसे कि जाटव, महाल, माला, पुलाया अथवा होलाया जातियों से संबंधित लोगों का है| जिससे आज तक भी वाल्मीकि या मादिगा या थोटी प्रजाति से संबंध रखने वाले राजनीति अथवा अफसरशाही में ज्यादा महत्व नहीं पा सके। कांग्रेस में भी दिखावे भर को दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता सदा उन्हीं जातियों से रहे हैं जो सफाई कर्मियों से इतर हैं। भाजपा के खाते में वर्तमान राष्ट्रपति का नाम है।
कुछ नेताओं ने मैला ढोने वालों की एवज में कोटा-व्यवस्था का फायदा उठाते हुए अपने बच्चों को सिविल सेवाओं में बिठा दिया। अब राजनीति और अफसरशाही में आरक्षण वास्तव में पहले से ही शक्ति संपन्न दलित लोगों के बच्चों का अधिकार बनकर रह गया है। उनकी राजनीति भी औपनिवेशिक नीति के विस्तार से अधिक कुछ नहीं है। कथित दलित क्रांतिकारी नेता अपने समाज के मर्द और लड़कों को सीवर लाइन में धकेले जाने वाली अमानवीय प्रक्रिया को रोकने और इस मुद्दे पर राज्य और केंद्र सरकारों के खिलाफ डटकर आंदोलन चलाने की बजाय खुद औपनिवेशिक हुकूमत की तर्ज पर भारतीय समाज के लिए विघटनकारी बनने वाले जातिगत तेवरों को और तीखे बनाते चले आ रहे हैं। यह चुनाव का वक्त है। सारे राजनीतिक दल इस समाज के सारे वोट कैसे मिलें इसकी जुगत में लगे हैं पर कोई भी यह सोचने को तैयार नहीं है कि इन मनुष्यों को इस घृणित कार्य से कैसे आजादी मिलें। ये बीमारी और मौतें कैसे रुकें ?
नेताओं के साथ भारतीय वैज्ञानिक मनीषा पर यह सवालिया निशान है कि इस काम के लिए छोटे और सुगम यंत्रों के अविष्कार करने से उन्हें किसने रोका है ? सीवर लाइन साफ करने वाली हाथीनुमा मशीन हर गली में नहीं जाती, वहां मनुष्य ही सीवर लाइन में उतरता है, इस घृणित कार्य से उसका निरंतर सम्पर्क उसे रोग और मौत देता है। इस मनुष्य-वध के पाप, बचने के उपाय खोजिये, राजनीति तो होती रहेगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।