नई दिल्ली। एससी/एसटी एक्ट में दर्ज मामले पर सुनवाई करते हुए इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने कहा है कि जिन अपराधों में सात वर्ष से सजा कम हो, उनमे गिरफ़्तारी की जरूरत नहीं है। हाईकोर्ट ने इस फैसले के लिए सुप्रीमकोर्ट के 2014 के एक फैसले को आधार बनाया है। यह फैसला जस्टिस अजय लांबा व जस्टिस संजय हरकौली की बेंच ने दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि से पहले अभियुक्त को नोटिस देकर पूछताछ के लिए बुलाया जायेगा और यदि अभियुक्त नोटिस की शर्तो का पालन करता है तो उसे दौरान विवेचना गिरफ्तार नही किया जायेगा।
क्या है मामला:
यह मामला गोंडा जनपद का था। शिवराजी देवी ने 19 अगस्त 2018 को गोंडा के खोड़ारें थाने पर याची राजेश मिश्रा व अन्य तीन लोगो के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराकर कहा था कि वह अनुसूचित जाति की महिला है। 18 अगस्त 2018 के सात करीब 11 बजे विपक्षी सुधाकर, राजेश, रमाकांत व श्रीकांत पुरानी रंजिश को लेकर उसके घर चढ़ आये और उसे व उसकी लड़की को जातिसूचक गंदी गंदी गाली देने लगे। जब उसने उन लोगों को मना किया तो वे उसके घर में घुसकर उन्हें लात घूंसों, लाठी डंडा से मारने लगे जिससे उन्हें काफी चोंटे आयीं। उनके शोर मचाने पर गांव वालों ने मौके पर पहुंचकर उनकी जान बचायी। जबकि याची अभियुक्त राजेश मिश्रा का कहना था घटना बिल्कुल झूठ है और शिवराजी ने गांव की राजनीति के चलते उक्त झूठी प्राथमिकी लिखायी है। इस तरह के कई केस इस समय हाईकोर्ट में रोज आ रहे हैं।
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2 जुलाई 2014 के दिये अपने इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बिना ठोस वजह केवल इसलिए गिरफ्तारी कर ली जाये कि विवेचक का अधिकार है की प्रथा पर गंभीर आपत्ति जतायी थी। उसने 2001 में आयी विधि आयोग की 177 वीं रिपोर्ट जिसके बाद संसद ने सीआरपीसी की धारा 41 में संशोधन कर गिरफ्तारी के प्रावधानों पर अंकुश लगाया था का हवाला देकर साफ किया था कि जिन केसों में सजा सात साल तक की है उनमें गिरफ़्तारी से पहले विवेचक को अपने आप से यह सवाल करना जरूरी है कि आखिर गिरफ़्तारी किसलिए आवश्यक है। कोर्ट ने ऐसे मामलें में रूटीन में गिरफ्तारी पर आपत्ति की थी कि उससे से पहले अभियुक्त को नोटिस देकर पूछताछ के लिए बुलाया जायेगा और यदि अभियुक्त नोटिस की शर्तो का पालन करता है तो उसे दौरान विवेचना गिरफ्तार नही किया जायेगा।
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