प्रवेश सिंह भदौरिया। मध्यप्रदेश वर्तमान में राजनीतिक रुप से सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है।जिस प्रदेश ने शायद ही कभी जातिगत हिंसा देखी होगी उसी प्रदेश में आज जगह जगह "अगड़े" व "पिछड़े" का जातीय द्वंद्व देखने को मिल रहा है। इसका मूलभूत कारण क्या है? क्या लोग आज जागरूक हो गये हैं? जबाब होगा नहीं क्योंकि यदि ऐसा होता तो लोगों को "लोकतंत्र की रामायण" अर्थात "संविधान" की जानकारी होती और वे एक दूसरे से नफरत तो कभी नहीं करते। फिर ऐसा क्या हुआ कुछ वर्षों में जो नफरत की खाई बढ़ती ही जा रही है।
जबाब स्पष्ट है आज लोग "आंदोलनकारी" बनकर राजनीतिक सत्ता को चखना चाहते हैं। दिल्ली के प्रसिद्ध अन्ना आंदोलन, गुजरात के पाटीदार आंदोलन में जिस तरह से मीडिया ने आंदोलनकारियों को "लोहिया" व "जयप्रकाश" की संज्ञा दी थी, उसी ने लोगों को सत्ता के निकट जाने व राजनीतिक नैतिकता को ध्वस्त करते हुए राजनीतिज्ञों को ब्लैकमेल करने का एक सशक्त मार्ग दिया है।
तो क्या सिर्फ मीडिया और "नवयुवक" ही जिम्मेदार हैं इस खाई के लिए?
बिल्कुल नहीं। असल में राजनीतिक सत्ता शिखर पर विराजमान "राजा नंद" के समान मदमस्त हो चुके राजा-महाराजा और उनको रोकने वाले विपक्षी "चाणक्य" दोनों की ही भूमिका इसमें बराबर व संदिग्ध है। हकीकत में बड़े विशालकाय महल रुपी बंगलों की ऊंची-ऊंची दीवारों से आम जनता की चीखें "खादी" के कानों तक पहुंचती ही नहीं है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कानून बनाने का तरीका यदि "ब्रिटिश महारानी" की तरह रहेगा और न्यायालय में बैठे "न्यायाधीश" यदि खामोशी से "अंग्रेजी गुलामी की निशानी" संसद की तानाशाही को बर्दाश्त करते रहेगे तो भीड़तंत्र पवित्र लोकतंत्र पर हावी होगा ही।
अतः राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे "रामायण" का अध्ययन अवश्य करें जिसमें "राजा" को ना ही सत्ता की चाह थी और ना ही वे प्रजा के प्रति "असंवेदनशील" थे। "राम" राजनीति करने के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक शुचिता के लिए जरूरी है। इसलिए सरकार को चाहिए कि नफरत की आग पर काबू पायें और वोटतंत्र की खातिर लोकतंत्र को नष्ट ना होने दें। यही "राजधर्म" है।
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