कैसे धुलेंगे ये “मी टू” के दाग ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

भारत के स्त्री विमर्श विचार के दो चित्र एक साथ दिख रहे हैं। चित्र विचित्र और विरोधाभासी हैं। देश में एक ओर अधिकांश लोग शक्ति के रूप में देवी पूजा में लगे हैं और दूसरी ओर “मी टू” अभियान देश में स्त्री की दशा का चित्रण कर  रहा है। जो हम भारतीयों के विरोधाभासी सोच को उजागर करता है। स्त्री का देवी स्वरूप आराधन, व्यवहार में समरूप क्यों नहीं है ? यह सवाल उठता है। भारतीय मनीषा तो पत्नी के अतिरिक्त हर स्त्री में  माँ के   स्वरूप की पक्षधर है। फिर “मी टू” जैसी घटना के मूल में पैदा स्त्री शोषण कहाँ से आया और क्यों आया विचारणीय विषय है। वैसे यह अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का साहस न्याय की राह में उठाया गया शुरुआती कदम  है। इस आवाज को मिलने वाले समर्थन से तय होता है की भारतीय समाज में अभी न्यायिक सोच जिन्दा है। आवश्यकता उसे देश के मूल दर्शन के साथ जोड़ कर समझने की है।

कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न का अनुभव करनेवाली महिलाओं की एक बड़ी आबादी सामाजिक लांछन और अन्य आशंकाओं से चुप रहती आयी है, लेकिन अब मुखरता का दौर है और इससे लैंगिक समानता की दिशा में संभावनाओं के नये द्वार खुल रहे हैं। भारत में कई महिलाएं 'मी टू' अभियान के तहत अपने अनुभव सार्वजनिक कर रही हैं तथा वैसे लोगों का नाम बता रही हैं, जिन्होंने उनके साथ आपराधिक कृत्य किया है।

यह भी एक अच्छी बात है कि अनेक मामलों में पुलिस तंत्र ने भी पीड़ितों का साथ देने की पहल की है। पिछले साल अक्तूबर में भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित विद्वानों पर इंटरनेट के जरिये महिलाओं ने दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के आरोप लगाये थे। जब पूर्व अभिनेत्री तनुश्री ने अभिनेता नाना पाटेकर को नामजद किया, तो इससे बड़ी तादाद में महिलाओं को अपनी आपबीती रखने का साहस मिला। इससे लैंगिक समानता के मौजूदा इंतजामों तथा यौन-दुर्व्यवहार रोकने के कानूनों को ज्यादा संवेदनशील और पीड़ित-पक्षधर बनाने की मांग भी उठी है।

महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक जरूरी उपाय की तरफ ध्यान दिलाया है कि पीड़ित के लिए तय समय सीमा के भीतर ही यौन-दुर्व्यवहार की शिकायत करने जैसी पाबंदी नहीं होनी चाहिए, जैसा कि मौजूदा कानून में प्रावधान है। घटना का मूल कहीं न कहीं पश्चिम के अन्धानुकरण और वहां की टूटती यौन वर्जनाओं की और इशारा करता है।

कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न को रोकने के लिए 1997 में दिये गये सर्वोच्च न्यायालय के 'विशाखा निर्णय' के निर्देशों को भी समुचित संवेदनशीलता के साथ लागू करने की बात उठी है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक सुनवाई के दौरान कहा है कि उन निर्देशों का गंभीरता से पालन होना चाहिए, न कि एक कर्मकांड की तरह। उन्हीं निर्देशों के आधार पर एक विशेष कानून 'महिला यौन उत्पीड़न (निरोधक) अधिनियम' के नाम से बना था। समय सीमा का उलझाव इसमें एक पेंच है। फिर भी इसका उद्देश्य सरकारी और निजी दफ्तरों एवं कार्यस्थलों पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने तथा उनके लिए सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने का था और है। दुर्भाग्य है कि उत्पीड़न और शोषण के अपराधों की बढ़ती संख्या के बावजूद संस्थाओं में इस कानून को ठीक से लागू करने की कोई व्यवस्था नहीं बन पायी है। कारण इसके साथ देश का मूल विचार नही जुड़ सका। भारत के स्त्री विमर्श में माँ, बहिन, बेटी जैसे आराध्य शब्दों के बाद पत्नी और प्रेमिका का स्थान है। लैंगिक समानता और न्याय के लिए दीर्घकालिक प्रयास जरूरी हैं। समाज में जागरूकता के साथ सांस्थानिक प्रणाली की व्यापकता को सुनिश्चित करने की महती चुनौती है।

महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी के हरसंभव प्रयास किये जाने चाहिए, सिर्फ नौ  दिन की आराधना से काम नहीं चलेगा इसे देश के संस्कारों से जोड़ना होगा। तब कहीं 25-50 साल बाद “मी टू” के दाग धुल सकेंगे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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