भारत दुनिया का सबसे अवसाद-ग्रस्त देश है ऐसा दावा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट में किया है। सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाले इस देश में, कम से कम 6.5 प्रतिशत लोग बायपोलर डिसऑर्डर, एक्यूट डिप्रेशन, सिजोफ्रेनिया जैसे गंभीर मनोरोगों के शिकार हैं। भारत में आत्महत्या की दर (प्रति लाख आबादी पर 10.9) भी ज्यादा है, जबकि मनोरोगों के प्रति जागरूकता और उपचार की व्यवस्था इसके मुकाबले बहुत कम। सवाल यह है एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में, क्या हम अपनी सोच बदलने को तैयार हैं? यह प्रमाणित हो चुका है कि रोग तन को ही नहीं लगते, मन को भी लगते हैं। देश में ऐसे मनोरोगियों की एक भारी संख्या है।
तन के रोग आसानी से उजागर हो जाते हैं, शायद इसलिए भी कि देह नजर आती है। देह के रोगों की स्वीकृति और विश्वसनीयता ज्यादा है और अपनी सुविधा से उनका इलाज भी कराया जाता है। इसके विपरीत मन दिखायी नहीं पड़ता। इसलिए, मन के रोग तथा दुख ज्यादातर अनदेखे रह जाते हैं। मन के रोगों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता, जब तक कि पीड़ित आत्मघाती कदम न उठा ले या फिर उसके बर्ताव से दोस्त-रिश्तेदार और परिवारजन उसे ‘पागल’ न समझने लगें। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, आज लोग अवसाद के शिकार ज्यादा हो रहे हैं।
आधुनिक जीवनशैली में, हमें अक्सर दूसरे के मन में झांककर देखने की जरूरत महसूस नहीं होती। आधुनिक जीवन हित साधने पर टिका है, चाहे यह हित व्यक्ति का हो या फिर समुदाय का। जब आंखें निजी हित-साधन पर टिकी हों, तो दूसरे के मन के भीतर झांकने का न अवसर मिलता है और न ही जरूरत होती है। प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा आधुनिक जीवन में पहला पायदान बन गया है, पारस्परिक सहयोग से उपजनेवाला संतोष और धीरज जीवन में न्यूनतम होता जा रहा है। सब कुछ, सबसे पहले और बिना पलक गंवाये हासिल कर लेने की व्यक्तिगत मनोभावना को सामान्य समझनेवाले समाज के भीतर एक बड़ी तादाद मनोरोगियों होना प्रमाणित हुआ है। तो इसमें आश्चर्य क्या है? तेज गति से आर्थिक तरक्की करते भारत की तस्वीर, सोच के इस चौखटे में दुनिया की बाकी आर्थिक महाशक्तियों से अलग नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय फलक पर देखें तो अमेरिका में, हर पांच में से एक व्यक्ति साल में कभी-न-कभी मनोरोग से गुजरता है, लेकिन एक तिहाई को ही मानसिक चिकित्सा उपलब्ध हो पाती है। चीन में बड़ी तादाद अवसादग्रस्त लोगों की है, लेकिन वहां 91 प्रतिशत लोग अपनी अवसादग्रस्त मनोदशा को लेकर जागरूक नहीं हैं और मनोरोगों के निवारण और रोकथाम पर चीन की सरकार का बजट भी कम है। भारत में मनोरोगों से निबटने की प्राचीन पद्धति मौजूद है। आवश्यकता उसे जन सुलभ बनाने की है। भारत युवाओं का देश कहलाता है। युवावस्था मानसिक विकास की भी अवस्था है और इस अवस्था में पढ़ाई, जीविका, कैरियर, सामाजिक हैसियत, पारिवारिक दायित्व सरीखे कई महत्वपूर्ण पड़ावों पर कामयाब होने का दबाव रहता है। अत:भारत में मानसिक स्वास्थ्य को नीतिगत प्राथमिकताओं में शामिल किये जाने की जरूरत के साथ इस विकार से निबटने की प्राचीन पद्धति में परिष्कार, नवीन शोध और उसे जन सुलभ कराने की महती आवश्यकता है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।