बड़ी अजीब बात है, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी वीडियो वायरल होने के बाद भी यह मानने को तैयार नही हैं कि गुजरात में हुई हिंसा और पलायन के पीछे कांग्रेस नेता मोहन ठाकोर और ठाकोर सेना का हाथ है। इसी तरह ठसाठस भरी सोमनाथ-जबलपुर ट्रेन और लदी-फदी बसों से मध्यप्रदेश लौटते लोगों को देख शिवराज सरकार चुप है। दोनों विरोधाभास के बीच यूपी और बिहार के लोग उनके साथ खड़ी उनकी सरकारों और उसके दबाव से आशान्वित है कि उनकी रोज़ी-रोटी उन्हें वापिस मिल जाएगी। यह सारे चित्र उस प्रदेश के हैं जहाँ समाज का एक धडा राजनीति प्रश्रय के बाद अपनी [गुजरात] सरकार को चुनौती दे रहा है।
इस समाज के भीतर भीड़ बनने के तैयार लोगों को मौक़ा मिल गया है। इसलिए समाज के इस धड़े ने एक अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि के सभी लोगों को बलात्कार में शामिल समझ लिया है। इसमें उनकी ग़लती नहीं है। हाल के दिनों में बलात्कार को राजनीतिक रूप देने के लिए धार्मिक पृष्ठभूमि को जानबूझ कर उभारा गया ताकि उसके बहाने एक समुदाय दूसरे पर टूट पड़ें। यह सारे देश में सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है। आरोपी मुसलमान है तो हंगामा, आरोपी हिन्दू है और पीड़ित दलित तो हंगामा। अपराध के बहाने धार्मिक गोलबंदी का मौक़ा बना कर राजनीति चमकाई जा रही है। गुजरात का यह दृश्य देश में कहीं भी और कभी भी दोहराया जा सकता है। सरकारें वोट की खातिर चुप हैं।
यूँ तो गुजरात के सभी दलों ने इस घटना की निंदा की है। ठाकोर समाज के नेता अल्पेश ठाकोर ने भी निंदा की है। लेकिन, इस निंदा से समस्या का समाधान नहीं निकला। गुजरात सरकार ने भी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के लोगों को भगाने की घटना की भी निंदा की सुरक्षा का आश्वासन भी दिया फिर भी विश्वास नहीं लौट रहा है। इस मामले में दोनों तरफ़ के समाज को समझाने की ज़रूरत है। जो नहीं हो रहा। क़ानून का भरोसा देने के लिए और बलात्कार के ख़िलाफ़ समाज को जागरूक बनाने के लिए पूरे देश में कहीं कोई काम नहीं हो रहा। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कल ही ४ नाबालिगों के साथ कुकर्म हुआ।
गुजरात के शांति मॉडल का सपना झुठलाया जा रहा है। सरकारी प्रचार असफल और राजनीतिक प्रचार का काम कर रहा है। मकान मालिकों ने धमकाना शुरू कर दिया है कि राज्य छोड़ दो। इतनी असहनशीलता ठीक नहीं है। गुजराती बनाम हिंदी नहीं होना चाहिए। नेताओं ने समाज को बांट दिया है। बड़े नेताओं की शक्ल देखकर छोटे स्तर पर भी नेता बनने के लिए लोग यही फ़ार्मूला आज़मा रहे हैं। ऐसे लोगों को गुजरात में और बिहार में या अन्य कहीं भी पनपने न दें। राजनीति हर समय एक अन्य की तलाश में हैं। यह पहले धर्म के आधार पर एक अन्य तय करती हैं, फिर जाति के नाम पर, फिर भाषा के नाम पर।
त्योहारों और जानवरों के हिसाब से उसके कार्यक्रम तय हैं। भीड़ के दुश्मन तय हैं और इस भीड़ के कार्यक्रम से किसे लाभ होगा वह भी तय है। सोशल मीडिया भी भीड़ बनाने की फ़ैक्ट्री बन गया है। यह भीड़ आम नागरिक को असुरक्षित कर रही है। बचिए जहाँ हैं, वहीं से इस कुचक्र के खिलाफ आवाज़ उठाइए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।