महाराजा जनकोजी राव सिंधिया 1843 में बहुत कम उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हुए। उस वक्त उनकी विधवा रानी तारा बाई किशोरी ही थी। उनके कोई संतान नहीं थी। सिंधिया रियासत को बचाने के लिए जरूरी था कि जनकोजी का कोई वारिस हो। लिहाजा उनके मरणासन्न होते ही खबर फैलने से पहले, सिंधिया रियासत के वफादार सरदार संभाजी राव आंग्रे घोड़े पर सवार हुए और वहां जा पहुंचे जहां रियासत के सरदारों के बच्चे खेल रहे थे।
खेल कंचों का हो रहा था। सरदार आंग्रे ने देखा कि सरदार हनुमंत राव के बेटे भागीरथ राव का न सिर्फ निशाना अचूक था, बल्कि व खेल भी रणनीति बना कर रहा था। भागीरथ की समझबूझ देख सरदार आंग्रे ने उसे घोड़े पर बिठाया और तत्काल मरणासन्न जनकोजी के पास ले जाकर, उसे उनका वारिस घोषित करवा दिया। भागीरथ राव जब तक यह समझ पाता कि सरदार आंग्रे उसे क्यों अचानक खेल से उठा कर ले आए हैं, वह महाराज बन चुका था।
उसका नामकरण हुआ जयाजीराव सिंधिया, और वह जनकोजी राव की 14 साल की विधवा ताराबाई का बेटा बन कर महाराजा जयाजी राव सिंधिया बन गया। 8 साल के भागीरथ राव को कंचे के खेल में निपुणता के कारण ग्वालियर का राज सिंहासन मिल गया। इनके बाद हिज़ हायनेस माधौराव सिंधिया, जॉर्ज जिवाजी राव सिंधिया, महाराजा माधवराव सिंधिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अब महान आर्यमन सिंधिया।
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