इंदौर। हाई कोर्ट की इंदौर बेंच ने कहा कि स्त्री और पुरुष में भेद नहीं किया जा सकता। यदि विवाहित बेटे को अनुकंपा नियुक्ति दी जाती है तो विवाहित बेटी को भी इसका अधिकार देना ही होगा। शासन की नीति पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह लिंगभेदी है। एक तरफ तो महिलाओं को देवियों का दर्जा दिया जाता है, दूसरी तरफ उनके साथ बार-बार भेदभाव किया जाता है।
मामला खरगोन निवासी मीनाक्षी का है। उसके पिता जोरावरसिंह राणावत पुलिस में हेड कांस्टेबल थे और डीआरपी लाइन में पदस्थ थे। नौकरी के दौरान 14 फरवरी 2015 को उनकी मौत हो गई। इसके बाद विवाहित बेटी मीनाक्षी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए शासन को आवेदन दिया। आवेदन के साथ उसने मां और दो भाइयों के शपथ-पत्र भी प्रस्तुत किए थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि मीनाक्षी को अनुकंपा नियुक्ति दी जाती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।
करीब एक साल बाद 26 अगस्त 2016 को शासन ने मीनाक्षी का आवेदन यह कहते हुए खारिज कर दिया कि शासन की नीति के मुताबिक विवाहित बेटी को पिता के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति पाने का अधिकार नहीं है। मृतक की पत्नी और दो बेटे भी हैं। उनके अनापत्ति देने से शासन की नीति को बदला नहीं जा सकता।
इस पर मीनाक्षी ने हाई कोर्ट में याचिका पेश की। जस्टिस एससी शर्मा और जस्टिस वीरेंदर सिंह की डिविजनल बेंच ने याचिका स्वीकारते हुए शासन को आदेश दिया कि वह याचिकाकर्ता के आवेदन पर गुणदोष के आधार पर विचार करे। कोर्ट ने नौ पेज के फैसले में शासन की अनुकंपा नियुक्ति नीति को लेकर भी टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि यह लिंगभेदी है। जब संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है तो अनुकंपा नियुक्ति को लेकर भेदभाव कैसे हो सकता है।
बेटा विवाहित हो या अविवाहित, उसे अनुकंपा नियुक्ति पाने का अधिकार होता है, जबकि बेटी से सिर्फ इसलिए यह अधिकार छीन लिया जाए कि वह विवाहित है, यह सही नहीं है। याचिकाकर्ता ने आवेदन में स्पष्ट कर दिया था कि उसके पति को गंभीर बीमारी है और वह पूरी तरह पिता पर आश्रित है, बावजूद इसके नीति के नाम पर उसके साथ असमानता हुई।
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