मध्यप्रदेश सरकार में पेंशन को लेकर मंथन चल रहा है | इस बात पर बहस चल रही है की पेंशन के बोझ से कैसे निबटा जाये | एक बिल भी बनने के सूचना है | सारे राज्यों के साथ केंद्र भी इस मसले पर निरंतर विचार कर रहा है |केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के मुख्यालय ने केंद्र सरकार पर पेंशन और वेतन भत्तों के भुगतान के बढ़ते बोझ की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। यह समस्या कितनी गंभीर है? क्या राज्यों के समक्ष यह संकट और बड़ा है?
केंद्रीय बजट के आंकड़ों से पता चलता है कि केंद्र सरकार अपने असैन्य कर्मियों तथा सैन्य बल कर्मियों के वेतन पर 2018-19 में 3.23 लाख करोड़ रुपये व्यय कर रही है। यह राशि 24.42 लाख करोड़ रुपये के उसके कुल व्यय का करीब 13 प्रतिशत है। स्पष्ट कहा जाए तो केंद्र सरकार बढ़ते वेतन व्यय को लेकर सतर्क रही है। चालू वर्ष में इसमें केवल 6 प्रतिशत का इजाफा होगा जबकि 2017-18 में इसमें 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई थी। स्वाभाविक रूप से कुल व्यय में वेतन की हिस्सेदारी पिछले साल 14 फीसदी थी जो इससे अधिक थी। पेंशन पहले ही केंद्र के कुल वेतन बिल का 86 फीसदी है और जल्दी ही इसमें और इजाफा हो सकता है। अगले कम से कम दो दशक तक पेंशन के वेतन से अधिक रहने की उम्मीद है। राष्ट्रीय पेंशन योजना 2004 में शुरू की गई थी और उसमें नियोक्ताओं और कर्मचारियों द्वारा एक फंड में राशि डालने की बात कही गई थी ताकि सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारियों को पेंशन दी जा सके। इससे वह योजना समाप्त हो गई भविष्य में सरकार की पेंशन जवाबदेही को विलंबित कर रही थी।
ऐसा लगता नहीं कि वर्ष 2038-39 के पहले पेंशन के बढ़ते बोझ से निजात मिल पाएगी। अगर सरकार विभिन्न कर्मचारी समूहों के पुरानी पेंशन व्यवस्था को दोबारा लागू करने की मांग को मान लेती है तो हालात और खराब हो जाएंगे। केयर रेटिंग्स की एक हालिया रिपोर्ट दर्शाती है कि वेतन और पेंशन खाते राज्य सरकारों के व्यय का बड़ा हिस्सा ले जाते हैं। अनिवार्य गैर विकासात्मक मदों में राज्य सरकारों का खर्च अब उनके कुल व्यय का 40 फीसदी हो चुका है। इसमें वेतन, पेंशन और ब्याज भुगतान सभी शामिल हैं। परंतु इसका एक बड़ा हिस्सा यानी करीब 32 फीसदी वेतन और पेंशन का है।
यह राशि केंद्र सरकार के बोझ तथा उसके वेतन-पेंशन खातों के भुगतान की राशि से अधिक है। केंद्र की राशि उसके व्यय का अनुमानित 24 फीसदी है। यह याद रहे कि कई राज्यों को अभी भी सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करनी हैं। जाहिर है उनका व्यय अभी वेतन और पेंशन के पूरे बोझ को परिलक्षित नहीं कर रहा है। एक बार वह व्यय जुड़ गया तो आंकड़े और अधिक चेतावनी भरे हो जाएंगे। केयर रेटिंग्स की रिपोर्ट यह भी दिखाती है कि कैसे वेतन की समस्या कुछ राज्यों के लिए खासी दिक्कत भरी हो सकती है। लगभग सभी पूर्वोत्तर राज्यों तथा पहाड़ी राज्यों का वेतन का बिल उनके व्यय से 27 फीसदी अधिक है। नगालैंड 38 फीसदी के साथ शीर्ष पर है, जम्मू कश्मीर 18 फीसदी के साथ अपवाद है। पश्चिम बंगाल और गुजरात 11 फीसदी पर हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में 13 फीसदी, तेलंगाना 16 फीसदी और मध्य प्रदेश में यह कुल व्यय का 18 फीसदी है। केरल, महाराष्ट्र और राजस्थान में वेतन का खर्च कुल व्यय का 26 फीसदी और आंध्र प्रदेश में 22 फीसदी हो चुका है। हरियाणा, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में यह उनके व्यय के 18 से 20 फीसदी के बीच है।
राज्यों में पेंशन का औसत व्यय में हिस्सा 9 फीसदी है जो केंद्र के 11 फीसदी से कम दिक्कतदेह लगता है। संभव है कि राज्यों की नियुक्ति की नीति ऐसी है जहां उनके वेतन का काफी हिस्सा अनुबंध वाले कर्मचारियों को जाता हो और जो पेंशन के हकदार नहीं हों। परंतु इससे दो फीसदी का अंतर पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता है। विषय गंभीर है, समग्र चिन्तन जरूरी है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।