प्रवेश सिंह भदौरिया। सन् 1990 तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी.पी. सिंह ने आजाद भारत के इतिहास में एक ऐसा कदम उठाया जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को ना केवल कमजोर किया बल्कि बैंकिंग तंत्र को भी पंगु कर दिया था और वह कदम था "किसानों की कर्जमाफी"। असल में इसकी नींव 1989 में ही पड़ गयी थी जब विभिन्न राजनीतिक दलों ने "कर्जमाफी" करने का वादा कर दिया था। इससे ना केवल लोन लेने वालों की संख्या बढ़ी बल्कि "विलफुल डिफाल्टर" की संख्या भी बढ़ती गयी। किसान को उम्मीद होने लगी कि उसके द्वारा लिया गया लोन आज नहीं तो कल माफ हो ही जायेगा।
"कर्जमाफी" चुनाव जीतने का "राम मंदिर"
सन् 2008 में केंद्र की सरकार ने आम चुनाव से पहले देश भर के किसानों के लिए एक "कर्जमाफी योजना" तैयार की व ऐलान किया कि सभी किसानों का कर्ज माफ किया जायेगा जिसके परिणामस्वरूप ऐसे किसानों का भी कर्जमाफ कर दिया गया जिन्होंने "गैर कृषि" कर्ज लिया था हालांकि इस "लोकलुभावन" योजना के फलतः तत्कालीन सरकार की केंद्र में वापसी की राह आसान हुई व उन्होंने मजबूती से दूसरी बार सरकार का गठन भी किया।
"कर्जमाफी" क्या जरूरी है?
इसमें राजनैतिक व आर्थिक जानकारों की राय भिन्न भिन्न रहेगी। राजनैतिक जानकरों के अनुसार एक राजनीतिज्ञ कर्जदारों में एक "वोटबैंक" तलाशते हैं। उनके अनुसार सरकार पहले "आसान" लोन देती है फिर चुनाव के वक्त लोन ना चुकाने के लिए भी प्रेरित करती है जिससे सबसे ज्यादा प्रभावी "करदाता" होता है जो अधिकांशतः "मध्यमवर्गीय" ही होता है क्योंकि बैंक अंतिम रुप से सारा बोझ इन्हीं मध्यमवर्गीय पर डालती है। अतः आर्थिक जानकारों के अनुसार "लोकलुभावन" वादे विकासशील राज्य को विकसित होने में असहयोग ही प्रदान करेंगे।
क्या किसान वाकई में कर्जमाफी चाहता है?
इसका जबाब 100% 'नहीं' होगा क्योंकि असल में भारतीय किसान "कर्जे" को चुकाने पर भरोसा करता है ना कि उसे खैरात में रखने में। असल में भारतीय किसान सिर्फ खाद व अच्छे बीज की सही समय पर उपलब्धता तथा अपने उपज का सही मूल्य चाहता है। उस पर ना तो रेडियो सुनने का समय है और ना ही टेलीविजन पर नेताओं द्वारा किये गये वादों को देखने का। वो तो बस लहलहाते खेतों को देखकर ही प्रसन्न होता है और इस उम्मीद में मंडी पहुंचता है कि "इस बार तो उसे उसकी फसल का सही दाम मिल जायेगा"।