रमेश पाटिल। सत्ता मे बने रहने के लिए राजनीतिक दल छोटे कर्मचारियों से खुब लम्बे चौडे वादे करते है लेकिन जब सत्ता मे आते है तो वादे विस्मृत तो कर ही देते है साथ ही सत्ता के मद मे चुर होकर शोषण की ओर कदम भी बढ़ा देते है। शोषण की परम्परा बना ली जाए तो आक्रोशित कर्मचारी अपनी मर्यादा मे रहते हुए भी सत्ता परिवर्तन के संकेत देने लगता है।
छोटे कर्मचारियो की नाराजगी अक्सर सत्ता परिवर्तन ला देती है। हाल-फिलहाल मध्यप्रदेश मे ऐसा 2003 और 2018 के चुनाव का विश्लेषण करने पर समझा जा सकता है। राजनीतिक दल कर्मचारियों की समस्याओं को लम्बे समय तक राजनीतिक दोहन की मंशा से बनाये रखती है। यह भूलते हुए कि छोटे कर्मचारियों की पहुंच सीधे जनता तक होती है। वह सत्ता की अच्छी बुरी छबि अपनी सोच के अनुसार अपने सीधे संपर्क से जनता के बीच बना देता है।
उदाहरण के लिए अध्यापकों की समस्याओं को ही लिया जा सकता है। बड़बोले नेताओ ने कभी इनकी समस्याओं को ईमानदारी से हल करने का प्रयास ही नही किया। दुर्भाग्य से सत्ता को अति महत्वकांक्षी अध्यापक संघो के कुख्यात नेतृत्व का भी साथ मिलता चला गया। इन कुख्यात अध्यापक नेताओं की चेहरों की लाली को देखकर भ्रमित सत्ता भले ही खुश होते रही लेकिन उन्हे अध्यापकों मे सुलग रही आग की तपिश महसूस नही हुई। परिणाम सबके सामने है। दंभ का फुग्गा पिचक गया।
छोटे कर्मचारियों की समस्याएं बहुत बड़ी नही होती। वे तो केवल अपना न्यूनतम अधिकार मांगते हैं जो कि उनके सम्मानपूर्वक जीवन यापन के लिए जरूरी होते है। ये अधिकार उन्हे मिल जाए तो आन्दोलन-हड़ताल के दृश्यों का तो सवाल ही नही उठता बल्कि खुश कर्मचारी सत्ता की नीतियो का बेहतर ढंग से क्रियान्वयन करने के लिए प्रेरित होता है और अंततः सत्ता को ही लाभ होता है। इतनी सी बात पता नही क्यो सत्ताधारी समझ नही पाते है। सत्ता संभालते ही न जाने कहा से अपराजित होने का रावणी दंभ उनमे आ जाता है। सत्ता के दंभ को मतदाता ठंडा करना जानती है। ये पब्लिक है सब जानती है।
भारत मे एक राजनीतिक दल की छवि कर्मचारियों के अधिकारों पर कुठाराघात की बन चुकी है। जिस प्रकार रोटी-कपड़ा और मकान प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता होती है उसी प्रकार कर्मचारियों की आधारभूत आवश्यकता नियमित पेंशन, बीमा, जीपीएफ और ग्रेच्युटी होती है। इस राजनीतिक दल ने कर्मचारियों की पुरानी पेंशन छीन ली। जीपीएफ, बीमा, ग्रेच्युटी भी बंद कर दी। कर्मचारियों के भविष्य और बुढापे को अनिश्चितता की आग मे अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिए झोंक दिया। इसी राजनीतिक दल ने नियमित कर्मचारियो की जगह कम वेतन पर कॉन्ट्रैक्ट बेस पर कर्मचारियो को रखने की नीति का भी शुभारंभ किया जो हर प्रदेश मे अब कर्मचारियो के लिए नासुर बन गई है।
वैसे तो देश मे लगभग 60 लाख पेंशन विहीन कर्मचारी है और उनका परिवार मिलकर लगभग 3 करोड वोटबैंक का निर्माण करते है लेकिन वे भी आज उसी राजनीतिक दल की नीति के अभिशाप को झेलकर पुरानी पेंशन, जीपीएफ, बीमा, ग्रेच्युटी से वंचित हो अंधकारमय भविष्य को अपनी आंखो से देख रहे है। उस दल के दिवंगत महान नेता के लिए आज भी कम से कम कर्मचारियो के मन मे अच्छे भाव नही है क्योंकि महान व्यक्तिव ने कर्मचारियो के भविष्य को नारकीय जीवन की ओंर धकेल दिया है। अब वर्तमान नेता देखते है कि उस अक्षम्य गलती को सुधारते है कि नही? यह ध्यान दिलाना आवश्यक होगा की अब जो दल पुरानी पेंशन बहाली करेगा और कर्मचारियों को अधिकार सम्पन्न करेगा वह उतना ही सत्ता के करीब होगा।