BJP अब "नागपुर" से नहीं "अहमदाबाद-बड़ौदा" से चलेगी | MY OPINION by pravesh singh Bhadouriya

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प्रवेश सिंह भदौरिया। मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी की हार हुई या उसे राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपना वजूद बचाने के लिए हराया गया, ये सवाल पार्टी कार्यकर्ताओं के दिमाग में जरूर आना चाहिए। आखिर क्यों संगठनात्मक रुप से सबसे मजबूत राष्ट्रीय पार्टी केंद्र में शासन करते हुए सिर्फ दो ही व्यक्तियों के इर्दगिर्द घूमती है जो उसके असल हार की वजह भी बनती है। 1999 के बाद भाजपा अटल-आडवाणी व 2014 के बाद वह मोदी-शाह के बीच झूलती रही है।

1999 के बाद राष्ट्रीय स्तर से लेकर लोकल स्तर पर सारे निर्णय सिर्फ दो ही व्यक्ति लेते थे। यहां तक कि गोविंदाचार्य जैसे संगठन से जुड़े व्यक्ति को भी भाजपा से सिर्फ वाजपेयी जी की जिद्द के कारण ही निकाला गया था। तब यशवंत सिंहा, शत्रुघ्न सिंहा व अरुण शौरी सरीखे सत्ता के नजदीकी व्यक्तियों ने उफ्फ तक नहीं की थी। यह वाजपेयी जी की जिद्द ही थी जिन्होंने 05 वर्ष पूर्ण होने से पूर्व ही अपनी सरकार की तिलांजलि दे दी थी।

10 वर्ष बाद की अर्थात 2014 की भाजपा में ज्यादा बदलाव नहीं आये हैं बस चेहरे बदल गये हैं जबकि तरीका और जिद्दी हो गया है। धीर-गंभीर की जगह चीख-चिल्लाने वाले प्रवक्ताओं को तरजीह दी जाने लगी है,यहां तक कि सालों बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व पर उन्हीं की पार्टी के नेताओं ने विधानसभा चुनाव के दौरान "रुपये के बदले सीट" बेचने के आरोप लगाये थे। पहले "गोविंदाचार्य" जैसे कद्दावर नेताओं को हटाया गया था जबकि अब "सिंहा" जैसे चेहरों को पुराने फर्नीचर की तरह हटा दिया गया है। संगठन स्तर के व्यक्तियों का उनकी मातृ राष्ट्रीय दल द्वारा बेइज्जती करना सामान्य कार्यकर्ताओं के लिए असहज स्थिति ही पैदा करता है।

मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भाजपा की जीत से ना केवल "शिव-रमन" मजबूत बनते बल्कि वो "मोदी-शाह" के सिंहासन को सीधी टक्कर भी देते इसलिए विधानसभा के दौरान कई बार लगा कि असल में "मोदी-शाह" द्वारा "शिव-रमन" को खुली छूट देने से इन दोनों ने एक तीर से अनेक निशाने लगायें हैं। इन्होंने ना केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वे को खारिज करके ये बतलाया कि भाजपा अब "नागपुर" से नहीं बल्कि "अहमदाबाद-बड़ौदा" से चलेगी बल्कि विधानसभा में हार का ठीकरा मुख्यमंत्रियों पर फोड़कर "मोदी-शाह" की जोड़ी को भी सुरक्षित कर लिया।

अतः यह सवाल मन में जरूर आता है कि क्या अमित शाह नितिन गड़करी जैसे राष्ट्रीय स्तर के अध्यक्ष साबित हो रहे हैं? जबाब होगा नहीं क्योंकि नितिन गड़करी लोकल स्तर व राज्य स्तर के नेताओं को भी सम्मान की दृष्टि से देखते थे, वे गठबंधन के साथियों से आदरभाव रखते थे जबकि उत्तर प्रदेश की जीत के बाद अमित शाह जी अहंकारी से दिखने लगे। यहां तक कि वो केंद्र की सरकार को "NDA सरकार" की जगह  "भाजपा सरकार" कहकर ही संबोधित करते हैं।इससे ना केवल उनके सहयोगी छिटक रहे हैं बल्कि भाजपा में "नर्म दल" की विचारधारा के लोगों में भी असंतोष पनप रहा है।यदि समय रहते पुराने नेताओं को तरजीह नहीं दी गयी तो भाजपा की केंद्र में वापसी 2029 तक भी संभव नहीं है क्योंकि "वोटर" सब समझता है।

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