नई दिल्ली। आजादी के इतने बरस के बाद भी भारत में पुलिस का चेहरा नहीं बदला जा सका है। समय-समय पर उठती मांग और राजनीतिक दलों की धींगामस्ती में ये मामला कई बार सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के पुलिस महानिदेशकों यानी DGP की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करके एक तरह ठीक ही किया। डीजीपी की नियुक्ति में स्थानीय कानूनों को महत्व देने की मांग का औचित्य इसलिए नहीं बनता, क्योंकि ऐसे कानून सत्तासीन राजनीतिक दलों को मनमानी करने का ही मौका अधिक देते हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति तो वरिष्ठता और काबिलियत के आधार पर ही होनी चाहिए।
डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाएं दाखिल करने वाले राज्यों हरियाणा, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारों को इससे स्पष्ट संदेश गया है कि राजनितिक दखलंदाज़ी अब नहीं चलेगी। पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति प्रक्रिया के नियम इस उद्देश्य से तय किए थे, ताकि पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाजी रोकी जा सके। इन नियमों के तहत सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संघ लोक सेवा आयोग वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का एक पैनल तैयार करेगा और राज्य सरकारें इस पैनल में से ही किसी को डीजीपी बना सकती हैं। लेकिन राज्य सरकारों ने ऐसा नहीं किया यह समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को ऐसा करने में क्या अडचन और समस्या है? उनकी समस्या जो भी हो, केवल इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट डीजीपी की नियुक्ति संबंधी अपने आदेश के पालन को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहा है, क्योंकि पुलिस सुधार संबंधी उसके अन्य दिशा-निर्देशों का अभी भी पालन होता नजर नहीं आ रहा है।
डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया तो उसके सात सूत्रीय दिशा-निर्देशों में से एक का ही हिस्सा है। आखिर इसकी सुध कब ली जाएगी कि शेष दिशा-निर्देशों पर भी अमल हो? नि:संदेह यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी है, क्योंकि अभी तक आदर्श पुलिस अधिनियम भी अस्तित्व में नहीं आ सका है। इस अधिनियम का मसौदा भी 2006 में तैयार हुआ था और सुप्रीम कोर्ट के सात सूत्रीय दिशा-निर्देश भी इसी साल सामने आए थे।यह ठीक नहीं कि जैसे राज्य सरकारें पुलिस सुधारों को लेकर अनिच्छा प्रकट कर रही हैं, वैसे ही केंद्र सरकार भी।
सिर्फ यह समझना कि केवल डीजीपी की नियुक्ति में राजनीतिक दखलंदाजी रोकने से पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी छवि में सुधार आ जाएगा तो यह सही नहीं। पुलिस की कार्यप्रणाली तो तब सुधरेगी, जब थाना स्तर के पुलिस अधिकारियों के काम में भी अनुचित सियासी दखल रोकने के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पुलिस नियमो से काम करे। मान भी ले कि डीजीपी की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय प्रक्रिया के हिसाब से होने लगे, तो क्या बर्ताव सुधरेगा? संदेह है।
यह बड़ी विडंबना ही है कि पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश 12 साल बाद भी अमल से दूर हैं। यह स्थिति तो संकेत करती है कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने आदेश पर अमल सक्षम नहीं और सरकारों की रूचि तो कभी होगी ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट के पुलिस सुधारों संबंधी उसके आदेश पर सही तरह से अमल हो, वहीं केंद्र व राज्य सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस की कार्यप्रणाली बदले।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।