जन पर भारी तन्त्र और गण [मान्य] | EDITORIAL by Rakesh Dubey

आज 26 जनवरी 2019 है। आज गणतन्त्र दिवस है। जटिल होती जिन्दगी, दिन ब दिन गहराते संकट, नागरिक आन्दोलन की मजबूरी और तंग होते सरकारी नजरिये आम जन पर भारी पड रहे है आम जन तो अब रचनात्मक आन्दोलन भी नहीं कर सकता सारा तन्त्र [कार्यपालिका] उसे गण [मान्यों] के इशारे पर विफल बनाने को लगा दिखता है। आन्दोलन कैसा भी हो तन्त्र और गण [मान्यों] की मर्जी के बगैर नही हो सकता। अब तन्त्र आन्दोलन करने के अधिकार पर भारी हो रहा है। देश की राजधानी दिल्ली के साथ राज्यों राजधानियों में अब आन्दोलन स्थलों के टोटे पड़ रहे  है। जो जगह आन्दोलन करने के लिए निश्चित है। वहां आन्दोलन करने पर शुल्क वसूला जा रहा है। सालों से दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के एकमात्र राष्ट्रीय गवाह रहे जंतर-मंतर पर प्रदर्शन और जिंदाबाद अब दूर की कौड़ी होकर रह गए हैं। यही हाल कमोबेश हर राज्य की राजधानी का है। जिस जगह को आधिकारिक तौर पर आंदोलन के लिए चिह्नित किया जाता है। वहां सरकारी अनुमति मिलाना टेढ़ी खीर होता जा रहा है। अब आन्दोलन करने का शुल्क पहले जमा करना होता है।

जनता पहले सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ विरोध के स्वर को जनता जंतर-मंतर पर बिना रुपयों की खनक के बुलंद करती थी, आज उसके लिए उसे हजारों-लाखों रुपये सरकार की झोली में देने होते है, तभी विरोध प्रदर्शन की इजाजत मिल सकती है यह चलन दिल्ली से किसी भी क्षण किसी अन्य राज्य की राजधानी में उतर सकता है। सच यह है की सत्ता का अपना ही चरित्र होता है। वह कहने भर को उदार, जनोन्मुखी और गरीबों-मजलूमों के साथ होती है। जबकि असल में उसका चरित्र बेहद क्रूर, दंभी और निष्ठुर होता जा रहा है, वह किसी भी हालत में अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहती है।

अब यदि जनता को सत्ता और शासन के विरुद्ध किसी भी तरह की आवाज बुलंद करनी है, तो रुपये खर्च करना पड़ेंगे। यह उस मुल्क का दृश्य है, जो विश्व का सबसे विशाल और उदार लोकतंत्र है। साथ ही, जहां संविधान में उल्लखित अनुच्छेद 19 के तहत अपनी आवाज को आजादी के साथ उठाना मौलिक अधिकार माना गया है। अगर जनता अपनी मांगों और समस्याओं को लेकर सरकार को कुछ बताना चाहती है, या किसी तरह का सुझाव देना चाहती है, तो उसके लिए शुल्क लेकर इजाजत देना कौन सा जनतंत्र है ? विरोध की आवाज लोकतंत्र का अनिवार्य अंग है, और आंदोलन इस आवाज को प्रकट करने का औजार। लिहाजा, जनता से इस अधिकार को नहीं छीना जा सकता। वस्तुत:, सरकार को तो यह सोचना चाहिए कि जनता आंदोलन के लिए मजबूर क्यों हुई? वैसे भी सोशल मीडिया के अतिवादी होने के बावजूद अपनी बातों को कहने का एक भौतिक स्थल तो जनता के पास होना ही चाहिए। फिर यह कहां का न्याय है कि अपनी तकलीफें बयां करने के लिए जनता पैसे भी खर्च करे? कहने को जनता की आवाज ही लोकतंत्र की मजबूती का आधार है। जन पर भारी तन्त्र और उसे चलाते गण [मान्यों] को अपने रवैये में सुधार कर आम जन की आवाज को सुनना होगा। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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