उत्सवों का देश और उत्सर्जित प्लास्टिक कचरा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

उत्सवों का देश भारत अपने हर सरकारी और गैर सरकारी उत्सव में प्लास्टिक का भारी उपयोग कर रहा है। हर उत्सव की समाप्ति प्लास्टिक कचरे के एक ढेर से होती है। हमारे देश भारत में रोजाना 25940 टन ऐसा ही कचरा पैदा होता है, जिसमें से 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा संग्रहित नहीं हो पाता है। यह कचरा नालियों, नदियों या कूड़े में फेंक दिया जाता है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु और कोलकाता समेत 60 शहरों से ही हर दिन चार हजार टन से अधिक कचरा निकलता है। हर उत्सव के साथ हर छोटे-बड़े शहर के साथ अब गाँव में यह ढेर दिखता है। समुचित निस्तारण की कोई व्यवस्था कही नही है।

सरकार को केन्द्रीय प्रदुषण नियन्त्रण मंडल द्वरा पिछले साल सौंपे गये अपने अध्ययन में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने यह भी रेखांकित किया था कि भारत में प्लास्टिक के इस्तेमाल मेंप्रति वर्ष 10 प्रतिशत की बढ़त हो रही है  इस हफ्ते सरकार ने राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि उपभोग और प्रबंधन से संबंधित समुचित कदम उठाये जायें, ताकि साल 2022 तक एक बार इस्तेमाल होनेवाले प्लास्टिक से मुक्ति का लक्ष्य पूरा हो सके. यह पहल जरूरी है, इसके विपरीत प्लास्टिक कचरे के आयात पर भी रोक के बिना इसका प्रभावी होना मुश्किल ही नहीं असम्भव दिखता है।

कहने को सरकार ने वर्ष 2015 में ऐसे आयात पर पाबंदी लगायी थी, किंतु इस आदेश में संशोधन करते हुए 2016 में विशेष आर्थिक क्षेत्रों में कचरा लाने की मंजूरी भी दे दी गयी। यह समस्या कितनी विकराल है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में जो दस नदियां समुद्र में 90 प्रतिशत से अधिक प्लास्टिक कचरा बहाती हैं, उनमें से तीन- गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु-भारत में ही बहती हैं। इस कचरे में शहरी के साथ ग्रामीण क्षेत्रों का भी योगदान होता है। अकेले गंगा नदी ही 12 लाख टन कचरा सर वर्ष समुद्र में डाल देती है। पहले यह माना जाता था कि पर्यटन, जहाजरानी और मछली कारोबार के बढ़ने से नदियों से भारी मात्रा में प्लास्टिक समुद्र में जा रहा है, लेकिन ताज़ा शोधों का निष्कर्ष है कि नालियों से आया कचरा नदी के जरिये बह रहा है। इससे सामुद्रिक जीवन पर खराब असर पड़ रहा है, जो पारिस्थितिकी के लिए खतरे की घंटी है।

शहरों  और गावों में इस कचरे से नालियों के जाम होने तथा आवारा पशुओं द्वारा खाने के साथ जगह-जगह प्लास्टिक के बिखराव की समस्या भी है। लापरवाह ढंग से उसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने तथा कचरे को जलाने से वायु प्रदूषण भी बढ़ रहा है। बीते दो दशकों में 25 राज्यों ने अनेक निर्देशों की घोषणा की है तथा केंद्रीय स्तर पर भी 2011, 2016 और 2018 में नियम बने हैं। फिर भी हर उत्सव का समापन कचरे के ढेर की उपलब्धि से होता है।

तयशुदा नियमों को लागू करने और विसंगतियों को दूर करने की कोशिशें संतोषजनक नहीं रही हैं। कचरे से बिजली बनाने के संयंत्रों की स्थापना को एक विकल्प के रूप में अपनाया गया है, पर इससे प्रदूषण बढ़ने की ही आशंकाएं अधिक हैं। पॉलिथिन की जगह बायो-प्लास्टिक थैले के उपयोग का हिस्सा अभी सिर्फ 2 प्रतिशत ही है। ऐसे में सरकारी स्तर पर इस कचरे के दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने तथा कमतर उपभोग के लिए ठोस नीति और निवेश की जरूरत तो है ही, साथ ही हर उत्सव के साथ उत्सर्जित प्लास्टिक कचरे पर रोक लगाने के कुछ ठोस करना जरूरी है। इसमें सिर्फ सरकार का नहीं देश के हर नागरिक का संकल्प जरूरी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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