अभी फसल खेतों में ही है और किसान के सर पर सलवटें साफ़ दिख रही हैं। भाजपा और कांग्रेस किसान और किसानी के लिए नये फार्मूले खोज रही है, सपने दिखा रही है। उनके फार्मूले कितने कारगर होंगे यह सवाल बाद का है अभी तो पूरे देश कर्ज, पलायन और आत्महत्या भारतीय किसान की पहचान बन चुके हैं। पिछले बीस बरस में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों की बदहाली अब एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है।
केंद्र और राज्य सरकारें अब किसानों के गुस्से और आन्दोलन की उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं। आगामी लोकसभा चुनावों से पहले और उसके बाद भी कृषि क्षेत्र से जुड़ी कई योजनाओं की घोषणा और कुछ को लागू किए जाने की सम्भावना है। सरकारी मंसूबे बंध रहे हैं, पर किसान राजी नहीं है। किसानों को उनके द्वारा उगाया गया प्याज सौ-सौ आंसू रुला रहा है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के सैकड़ों किसान मंडी में एक –दो रूपये प्रति किलो के भाव पर बेचने पर मजबूर हैं। कुछ जगहों पर तो प्याज को फेंकना ही पड़ रहा है। आम तौर पर किसानों का मानना है कि फसल का सही दाम सुनिश्चित हो जाए तो आधी समस्या हल हो सकती है।
छोटी जोत के किसानो की हालत सबसे खराब है वे साफ कहते है कि खेती से परिवार को चला पाना मुश्किल हो गया है। कभी सिंचाई के लिए पानी न होने से किसान को संकट का सामना करना पड़ता है तो कभी भारी बारिश या बेमौसम बारिश उनकी फसलों को नुकसान पहुंचाती है। किसान ऐसे मौकों पर सरकार से मदद की उम्मीद रखता है। कम मूल्य पर अपना उत्पादन बेचने को मजबूर किसान विरोध के तरीकों से ज्यादा सामजस्य पूर्ण नीति चाहते हैं। सरकार और बाज़ार की किसान नीति ठीक नहीं है। एक ओर उस पर समग्र विचार नहीं है। दूसरी ओर सरकार किसानों की नाराजगी दूर करना चाहती है, लेकिन किसानों की मदद का बेहतर तरीका क्या हो, इसको लेकर विचार विमर्श ही जारी है कोई नतीजा फौरन निकलता दिख नहीं रहा है।
कर्ज माफी किसानों की इस समस्या का उपाय नहीं है। पूर्ण कर्ज माफी से सरकारी खजाने पर लगभग साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। इससे अर्थव्यवस्था के संतुलन पर नकारात्मक असर पड़ने कोई नहीं रोक सकता। ऐसे में सरकार के पास किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने की योजना विकल्प हो सकती है, पर सरकार इसके लिए ईमानदार अमला कहाँ से लाएगी। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था में और बदलाव करने पर विचार कर रही है ताकि इसे ज्यादा प्रभावी बनाया जा सके, साथ ही वह खेती से कम आमदनी की भरपाई करने के लिए डायरेक्ट इनकम ट्रांसफर के बारे में भी सोच रही है।ये उपाय कारगर होंगे या नहीं इसका कोई अध्ययन अब तक नहीं हुआ है। अभी जो विकल्प दिखते है मध्य प्रदेश की भावांतर भुगतान योजना [जिसका नाम अब बदल गया है] और तेलंगाना मॉडल को फेरबदल कर राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना हो सकता है। तेलंगाना सरकार ने फसलों की से पहले प्रति एकड़ तय राशि सीधे खाते में भेजकर किसानों को लाभ दिया है।
तेलंगाना के किसानों को प्रति वर्ष प्रति फसल 4000 रुपये एकड़ की राशि दी गई है। दो फसल के हिसाब से किसानों को हर साल 8000 रुपये प्रति एकड़ मिले हैं। झारखंड और उड़ीसा भी अब इसी तरह की योजना शुरू कर रहे हैं। मध्य प्रदेश की पुरानी भावांतर भुगतान योजना में यदि कृषि उत्पाद की बिक्री मूल्य अधिसूचित मूल्य से अधिक है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी से कम है, तो उनके बिक्री मूल्य और एमएसपी के बीच का अंतर किसान के बैंक खाते में सीधे जमा किये जाने का प्रावधान है।
किसान और किसानी इन झूलों में झूल रहे हैंं। केंद्र और राज्य सरकारे कोई एक फार्मूला नहीं निकाल सके हैं, जिससे किसान के आंसू थमे। उसकी आँखे इंतजार में है कि उसके दिन भी कभी अच्छे आयेंगे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।