नई दिल्ली। देश में कई लोग अपनी जाति के अनुसार सरनेम नहीं रखते, बल्कि दूसरी जाति के सरनेम का उपयोग शुरू कर देते हैं। शायद इसलिए क्योंकि वो समाज में अपनी जाति छुपाना चाहते हैं परंतु जब सरकारी लाभ की बारी आती है तो वो जाति प्रमाण पत्र लगा देते हैं। कभी भी ऐसे लोग उलझ भी जाते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट में ऐसा ही मामला सामने आया। हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि जाति का निर्धारण सरनेम से नहीं बल्कि पारिवारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक स्थिति से किया जाता है।
चीफ जस्टिस गोविन्द माथुर और जस्टिस सीडी सिंह की खंडपीठ ने मैराज अहमद की याचिका पर यह आदेश दिया। दरअरस, याची मैराज अहदम हमीरपुर बिजनौर का रहने वाले हैं। उनके पिता ने ठठेरा पिछड़ी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर आरक्षित सीट पर नगर पंचायत अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और विजयी घोषित हुए। याची शेख लिखते हैं तो इस पर आपत्ति की गई कि वह पिछड़ा वर्ग जाति का नहीं हैं। जिला जाति स्क्रूटनी कमिटी ने आपत्ति खारिज कर दी। अपील पर मंडलायुक्त ने कमिटी के आदेश को रद्द कर दिया और कहा कि याची शेख होने के नाते ऊंची जाति से हैं। इस याचिका को कोर्ट में चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का दिया हवाला
हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि जाति किस वर्ग में है यह पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। कोर्ट ने कहा कि मात्र शेख लिखने से किसी की मूल जाति बदल नहीं जाती। कोर्ट ने सभी पहलुओं पर विचार कर नए सिरे से निर्णय लेने का आदेश दिया है।