देश के किसी भी बाज़ार में चले जाईये। सारे दुकानदार इन दिनों एक ही बात कहते हैं “बाजार में नकदी [पैसा] नहीं है।” कृषि बाजारों में तो “”मंदी” सालों से सुनने को मिल रही है। शायद आप भी इसे बेतुकी बात कहे और वह सिद्धांत बताये जो कहता है “बिक्री का संबंध तो मांग और आपूर्ति से होना चाहिए, इसमें पैसे का क्या काम?” लेकिन लेनदेन के लिए पैसा चाहिए और असंगठित अर्थव्यवस्था जो देश के जीडीपी के 40 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी है, वह तो नकदी से ही चलती है। सैद्घांतिक तौर पर देखें तो अगर उपलब्ध नकदी की गतिशीलता अधिक हो तो उतनी ही नकदी कहीं अधिक आर्थिक गतिविधियों को अंजाम दे सकती है।
सवाल यह है कि नकदी की इतनी तंगी क्यों है? कुछ लोग इसे नोटबंदी से जोड़कर देखते हैं जबकि हकीकत में अब नोटबंदी के पहले की तुलना में 14 प्रतिशत से अधिक नकदी चलन में है। यह बात अलग है कि कई क्षेत्र ऐसे हैं जो नकदी की कमी से अभी भी पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं। मौजूद आंकड़ों के आधार पर गहन अध्ययन कर पाना मुश्किल है। ऐसा लगता है इसके अन्य कारण भी हो सकते हैं। संगठित अर्थव्यवस्था का उत्पाद ही नकदी होता है। रिजर्व बैंक नकदी छाप कर बैंकों को देता है। एक बार बैंक से निकासी के बाद नकदी की गतिविधि का पता लगाना मुश्किल होता है। मोटे तौर पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नकदी किन रास्तों से होकर संगठित और असंगठित क्षेत्र में जाती है।
भारत में अनाज खरीद इसका पहला बिंदु होता है। गैर कृषि कामगार (विशुद्घ उपभोक्ता) किसानों (विशुद्घ उत्पादक) से हर वर्ष करीब 15 लाख करोड़ रुपये का अनाज खरीदते हैं। जब किसान के खाते में यह राशि आ जाती है तो वह इसे निकालकर श्रम, बीज, उर्वरक आदि के लिए भुगतान करता है। भूमि खरीद के मामलों में भी काफी पैसा नकद अर्थव्यवस्था में आता है। बीते कुछ वर्ष में ये सारी संभावनाएं सीमित हुई हैं। पांच वर्ष पहले कृषि ऋण में शुद्घ सालाना इजाफा एक लाख करोड़ रुपये से अधिक हुआ करता था जबकि आज यह काफी कम है। इसी प्रकार नई परियोजनाओं की घोषणा भी नहीं हो रही, अचल संपत्ति कारोबार में रुकावट है और भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में भी गिरावट आई है।
इस देश में किसान समर्थक योजनाओं से बचना मुश्किल है। जिससे हम अर्थव्यवस्था के विकास के ऐसे मोड़ पर पहुंच जाते हैं जहां कृषि से होने वाली प्रति व्यक्ति आय गैर कृषि आय से पिछड़ जाती है। बेहतर क्रियान्वयन के साथ आय के स्थानांतरण की योजना किसानों के लिए मददगार हो सकती है क्योंकि इससे उन्हें नकदी मिलती है। सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (इसे हाल ही में स्वास्थ्य बीमा योजना और ग्रामीण आवास सब्सिडी में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया) के रूप में सरकार के पास एक तरीका है जिसकी सहायता से वह जरूरतमंदों तक नकदी पहुंचा सकती है। ज्यादा नहीं लेकिन थोड़ी बहुत राजकोषीय गुंजाइश भी निकलती है।
बीते कुछ वर्षों के दौरान राजकोषीय सुदृढ़ीकरण में भी मामूली सुधार हुआ है। हर 10 वर्ष में जीडीपी में सरकारी वेतन और पेंशन की हिस्सेदारी बढ़ जाती है। अगले वेतन आयोग द्वारा इजाफा करने तक यह धीरे-धीरे कम होता है। पांचवें वेतन आयोग 1997-99 के दौरान यह इजाफा जीडीपी के 2 प्रतिशत था और छठे (2009-11) में यह 2.5 प्रतिशत था। पिछले दशकों के उलट सातवें वेतन आयोग (2017-19) के दौरान यह वृद्धि एक प्रतिशत रही जिससे समेकित राजकोषीय घाटा भी नहीं बदला। ये कारक भी नकदी की आवाजाही पर असर डालते हैं।
घटती-बढती महंगाई भी प्राथमिक जिंसों की कीमत में बदलाव लाती है। इससे आय और नकदी शुद्घ उत्पादक को मिलती है। हालांकि ये केवल अनुमान हैं और अर्थव्यवस्था अलग तरह से भी व्यवहार कर सकती है। इस स्तर पर हस्तांतरण योजना की परख नहीं हुई है और अर्थव्यवस्था पर इसका असर क्या होगा यह कहा नहीं जा सकता। नकदी इस सब में फंसकर लुप्त हो जाती है। बाजार में तरलता नहीं दिखती। बाज़ार की तरलता का असर देश के विकास पर होता है, यह सरकार को जान लेना चाहिए। इस बजट के साथ आम चुनाव भी है बजट दिशा तय करेगा और नकदी की तरलता भी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।