नई दिल्ली। दुनिया में करीब ७ लाख और भारत में ५८ हजार बच्चे “सुपर बग” के कारण हर साल मौत के मुंह चले जाते हैं। यह सुपर बग वो बैक्टीरिया है जो जमीन और पानी में फैल चुका है। कारण भारत सहित दुनिया में लापरवाह तरीके से एंटीबायोटिक दवाओं के बढ़ता सेवन है। जिससे रोगाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जा रही है। इस कारण बीमारियों की गंभीरता भी बढ़ रही है, और दवाएं भी बेअसर हो रही हैं। ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है, पर भारत इससे ज्यादा प्रभावित है।
पेंसिलीन की खोज करके मानवता को रोगों से लड़ने के लिए सक्षम बनानेवाले एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने १९४५ में नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब यह किसी भी दुकान से खरीदा जा सकेगा और कोई अज्ञानी इसका सेवन कर रोगाणुओं को प्रतिरोधक बना देगा। आज उनकी आशंका सच हो गई है। हमारे देश में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी और नीम हकीमों की भरमार के कारण एंटीबायोटिक के खतरे अधिक चिंताजनक हैं। चिकित्सक की सलाह के बिना दवाएं लेने का चलन भी भारत में कुछ अधिक ही है।
सुपर बग' के नाम से चिह्नित प्रतिरोधक क्षमता से लैस बैक्टीरिया अस्पतालों, मिट्टी और पानी तक में पहुंच गये हैं। और इनमें से कई पर किसी भी दवा का कोई असर नहीं होता। इनके प्रसार का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे हो रहे हैं| पिछले वर्ष जारी अध्ययनों में बताया गया था कि दुनियाभर में करीब सात लाख बच्चे सालाना ऐसे बैक्टीरिया के कारण मारे जाते हैं, जिनमें ५८ हजार भारत के बच्चे हैं।
वर्ष २००० से २०१५ के बीच वैश्विक स्तर पर इनके उपभोग में ६५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। निम्न और मध्य आयवर्गीय देशों में यह बढ़ोतरी ११४ प्रतिशत रही है। जबकि भारत में यह आंकड़ा १०३ प्रतिशत का है। यह एक बड़ी चुनौती है इससे कैसे निबटा जाये ।
हमारा भारत महत्वपूर्ण दवाओं का एक प्रमुख निर्माता देश है। इनके कारखानों से निकलने वाले कचरे से भी बैक्टीरिया नदी-नाले के जरिये फैल रहे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण एंटीबायोटिक की सही मात्रा देने और प्रतिरोधक बैक्टीरिया पर रोक लगाने में मुश्किलें आ रही हैं। चिकित्सकों की बड़ी संख्या नये शोधों और निर्देशों से अनजान है। जिससे ऐसे मामले भी सामने आते हैं, जब एंटीबायोटिक की कम खुराक कारगर नहीं होती, तो चिकित्सक उसकी मात्रा बढ़ाते जाते हैं। अच्छे अस्पतालों में भी साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था न होने से 'सुपर बग' बैक्टीरिया सामान्य मरीज को भी खतरे में डाल सकता है। इस समस्या पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। सरकारों और चिकित्सा संगठनों को पहल करनी चाहिए तथा लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रदूषित हवा-पानी और खान-पान में पोषण की कमी से बीमारियां भी बढ़ रही हैं।
इसलिए एंटीबायोटिक के बेमतलब सेवन और दवा-प्रतिरोधक रोगाणुओं पर अंकुश लगाना प्राथमिकता होनी चाहिए. यदि रोगों के प्रसार पर काबू पाने में कामयाबी मिलती है, तो विभिन्न योजनाओं में हो रहे सरकारी और निजी क्षेत्र में निवेश को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को विस्तार देने में लगाया जा सकता है| भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार बाज़ार की तरह हो रहा है। कोई भी समझने को तैयार नहीं है कि देश इस मसले पर कहाँ जा रहा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।