सोशल मीडिया का चुनावी दबदबा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

आम लोगों की मानसिकता को प्रभावित करने में सोशल मीडिया अब बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा है। इसलिए आम चुनाव की घोषणा के बाद अब सोशल मीडिया पर कुछ नियंत्रण लगाये जाने की बात उठने लगी है। “इंटरनेट” का सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जिस पर नियंत्रण करने की बात करना तो आसान है, लेकिन कर पाना बहुत ही मुश्किल है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अधिकतर सोशल मीडिया कंपनियां भारत से बाहर की हैं और उन पर अंकुश लगाने की सबसे बड़ी चुनौती अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन प्रतीत होगा। हालांकि, मुख्य चुनाव आयुक्त ने आचार संहिता के तहत सोशल मीडिया पर कड़ी नजर रखने की बात जरुर कही है जिससे  यह उम्मीद जागती है कि कुछ होगा इसके विपरीत चुनाव आयोग की तरफ से अभी कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं हुआ है।

रूसी हैकरों यह चेतावनी चर्चा में है कि वे चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे भारत को  इस खबर को हलके में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि अमेरिका में हुए पिछले राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने में भी रूस की भूमिका को लेकर खबरें आ ही नहीं चुकी हैं, बल्कि एक तरह से प्रमाणित भी हुई हैं। जरूरी है कि सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए चुनाव आयोग एक दिशा-निर्देश जारी करे कि चुनाव में पार्टियों को क्या-क्या कदम उठाने चाहिए। आचार संहिता के तहत पार्टियों के नेटवर्क पर या उनके सोशल मीडिया पेजों पर कैसी प्रचार सामग्री डाली जा रही है?  इसकी निगरानी हो। समस्या यह है कि चुनाव आयोग ने इस संबंध में जो बातें कही हैं, उससे कोई बड़ा क्रांतिकारी परिणाम नही निकलेगा। आयोग ने कहा है कि राजनीतिक पार्टियों को सोशल मीडिया पर अपने विज्ञापन की पहले जानकारी देनी होगी, फिर स्वीकृति मिलने पर ही वे उसको अपने पेज पर पोस्ट करेंगे. यह कदम तो ठीक है, लेकिन पार्टियां बहुत चालाक हैं और वे बिना पार्टी का नाम लिये ही कोई प्रॉक्सी एकाउंट खोल लेंगी और अपना प्रचार सामग्री पोस्ट कर देंगी| ऐसे में समूचे सोशल मीडिया के तंत्र के स्तर पर ही कोई तकनीकी रणनीति बनानी पड़ेगी, ताकि कोई भी व्यक्ति चुनाव को प्रभावित न कर सके और स्वच्छ चुनाव हो।

आम धारणा है किभारत में जो कुछ करना हो कर लो, कानूनन सजा तो होनी नहीं है। इस जगह कानून की कमी स्पष्ट दिखती है इसलिए सरकार को चाहिए कि चुनौती से भरे इस मसले को लेकर सख्त कानून लाये। सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट करने के लिए तो कोई खर्च नहीं लगता, लेकिन उस पर विज्ञापन देने के लिए पैसे खर्च होते हैं, जिसे चुनावी खर्चे में जोड़ने की बात कही गयी है। यह एक अच्छा कदम हो सकता है, लेकिन सवाल फिर वही है कि यह संभव कैसे होगा?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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