मायावती (Mayawati) का अब कांग्रेस (CONGRESS) विरोधी चरित्र उभरा है। वैसे कुछ महीनों पहले उन्होंने समर्थन देकर कांग्रेस की मध्य प्रदेश सरकार के गठन में भूमिका अदा की थी। छत्तीसगढ़ और राजस्थान (Chhattisgarh and Rajasthan) में कांग्रेस को उनके समर्थन की जरूरत नहीं थी, फिर भी उन्होंने बिना समर्थन मांगे ही उन दोनों राज्यों (States) में भी सरकार गठन (Government formation) में कांग्रेस के समर्थन की घोषणा कर दी थी। मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस द्वारा समर्थन मांगने के पहले ही मायावती ने समर्थन दे डाला था। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि अभी भी मायावती की पार्टी का समर्थन उन तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारों को प्राप्त है।
इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सपा-बसपा (SP-BSP) गठबंधन का हिस्सा नहीं है, क्योंकि मायावती नहीं चाहती थीं कि कांग्रेस उनके गठबंधन के साथ आए। समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) अपने साथ कांग्रेस को भी रखना चाहते थे और इसके लिए त्याग करने को भी तैयार थे। त्याग से उनका मतलब समाजवादी पार्टी का कम सीटों पर लड़ने से था। समाजवादी पार्टी बसपा से बड़ी पार्टी है। चुनाव में उसे बसपा से ज्यादा वोट भी मिले हैं और ज्यादा सीटें भी।पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा का एक उम्मीदवार भी नहीं जीत पाया था, जबकि समाजवादी पार्टी के पांच उम्मीदवार जीत गए। उसके बाद दो उपचुनावों में भी सपा की जीत हुई। विधानसभा के आम चुनाव (Genera Election) में बसपा के मात्र १९ विधायक विधानसभा मे आए, तो समाजवादी पार्टी ४७ विधायक सदन के सदस्य बने।
भाजपा को हराने की ललक में अखिलेश ने मायावती का जूनियर पार्टनर बनना मंजूर कर लिया। गठबंधन में बसपा को ३८ सीटें दे दी गईं और समाजवादी पार्टी मात्र ३७ सीटें पाकर ही संतुष्ट हो गई। ३७ सीटों में भी ७ सीटें ऐसी हैं, जिन पर सपा की जीत की संभावना लगभग शून्य है। यानी अखिलेश ने न केवल मायावती को ज्यादा सीटें दीं, बल्कि सीटों की पसंद के मामले में भी पहला अधिकार बसपा सुप्रीमो को ही दे दिया। पहल कांग्रेस की ओर से थी और उसके बाद इस अटकल को हवा मिली कि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के गठबंधन में भी जगह मिल सकती है। और इस तरह की अटकल के बीच ही मायावती ने बयान देकर यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देश के किसी भी राज्य में कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं करने जा रही है।
प्रश्न यह है कि मायावती कांग्रेस की इतनी विरोधी कैसे हो गईं। यूपीए की सरकार (UPA GOVERNMENT) के कार्यकाल में भी मायावती ने उसका समर्थन किया था। राज्य सभा के चुनावों के समय भी बसपा के सरप्लस विधायकों के वोट भी कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में ही पड़ते थे। एक बार उत्तराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत (Harish Rawat) सरकार के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा हुआ था। वह सरकार बर्खास्त भी कर दी गई थी, जो बाद में बहाल भी हो गई। उसकी बहाली में बसपा के विधायकों की बहुत बड़ी भूमिका थी और मायावती ने यह सुनिश्चित किया था कि उनके विधायक न तो भाजपा खेमे में जाय और न ही वोटिंग के दौरान अनुपस्थित रहकर हरीश रावत सरकार को गिराने का काम करे।
कांग्रेस के साथ मायावती के जुड़ने के अनेक उदाहरण हैं, लेकिन अब वह कह रही हैं कि कांग्रेस के साथ कहीं भी उन्हें गठबंधन नहीं करना है। आखिर इसका क्या कारण हो सकता हैं? तो इसका एकमात्र कारण यही है कि मायावती अपने राजनैतिक अंत की ओर बढ़ रही है। उनका जनाधार लगातार क्षीण होता जा रहा है।
वे कांशीराम तो बन नहीं पाई , लेकिन उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ साथ कमजोर ओबीसी जातियों को उन्होंने जरूर अपने साथ कर रखा था, लेकिन वे मायावती के अगड़ी जाति के लोगों को टिकट बेचने की प्रवृति के कारण अलग हो गए। आदिवासी तो कभी उनसे जुड़ा ही नहीं और ओबीसी के साथ छोड़ने के बाद बहुजन का मतलब दलित रह गया।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।