मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी चिंता | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। भारत खुशहाली के पैमाने पर पिछड़ गया है, ये बात जग जाहिर है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य  संगठन की जो रिपोर्ट आई है वो बेहद चिंताजनक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) की रिपोर्ट के मुताबिक, अगले साल तक भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी मानसिक बीमारी (Mental illness) से ग्रस्त होगी। अभी भी हमारे देश में करीब आठ लाख लोग हर साल आत्महत्या कर लेते हैं और 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग में आत्महत्या मौत की दूसरी सबसे बड़ी वजह है. मानसिक स्वास्थ्य (mental health) की अनदेखी।

अवसाद, चिंता, नशे की लत के कारण पैदा होनेवाली परेशानियां और अन्य मानसिक अस्थिरताओं के संकट का सामना करने के लिए 2014 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति लायी गयी और 2017 में मानसिक स्वास्थ्य सेवा कानून भी पारित किया गया। वर्ष 2018 में बीमा प्राधिकरण ने इस कानून के प्रावधानों के अनुरूप सहायता देने का निर्देश बीमा कंपनियों (Insurance companies) को दिया गया। इस सबके बावजूद मानसिक रोगियों (Mental patients) और विभिन्न परेशानियों से जूझ रहे लोगों तक मदद पहुंचाने में हम बहुत पीछे हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, लगभग 90 प्रतिशत रोगियों को इलाज मयस्सर नहीं है। निश्चित रूप से इन पहलों का एक सकारात्मक असर पड़ा है और भविष्य के लिए उम्मीदें मजबूत हुई हैं।

भारत में करोड़ों रोगियों के लिए मात्र 3800 मनोचिकित्सक और 898 चिकित्सकीय मनोवैज्ञानिक (Medical psychologist) है। केंद्रीय स्वास्थ्य बजट का सिर्फ 0.16 प्रतिशत हिस्सा ही इस मद के लिए आवंटित है। एक तो सरकारी स्तर पर समुचित प्रयासों का अभाव है, दूसरी तरफ मानसिक समस्याओं (Mental problems) से जूझ रहे लोगों के प्रति समाज का रवैया भी बेहद चिंताजनक है। इन समस्याओं को समाज का बड़ा हिस्सा अपमान, शर्मिंदगी और हिकारत की नजर से देखता है। जिसे बदलने के लिए समाज को ही पहल करना होगा।

समस्या तब विकराल होती है जब समस्या से जूझता व्यक्ति और उसका परिवार भी चुप्पी साध लेता है तथा उसे आस-पड़ोस का साथ भी नहीं मिल पाता है| इस तरह से व्यक्ति का स्वास्थ्य और जीवन भी प्रभावित होता है तथा वह सामाजिक और आर्थिक रूप से भी योगदान देने में शिथिल हो जाता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और हार्वर्ड के एक अध्ययन के मुताबिक, 2030 तक मानसिक बीमारी का वित्तीय भार 1.03 ट्रिलियन डॉलर हो जायेगा, जो कि आर्थिक उत्पादन का 22 प्रतिशत हिस्सा है।

एक और डराने वाला आकलन यह भी है कि 2025 तक विश्व में स्वस्थ जीवन के 3.81 करोड़ साल मानसिक बीमारी के कारण बर्बाद हो जायेंगे। ये तथ्य इंगित करते हैं कि अगर समय रहते इस मसले पर ध्यान नहीं दिया गया, तो स्थिति लगातार बिगड़ती जायेगी| भारत इस मामले में यह ठोस बात कहता है कि हमारे पास एक ठोस कानून है, जो मानसिक समस्याओं से परेशान लोगों को अधिकारों से संपन्न करता है। यहाँ पर विचारणीय बात यह है की ये सारे इंतजाम रोग के बाद के है, उसकी रोकथाम के नहीं। मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना होगी।

अब सवाल यह है कि शासन-प्रशासन के स्तर पर कानूनी प्रावधानों को कितनी गंभीरता से अमली जामा पहनाया जाता है तथा समाज अपनी नकारात्मक सोच और व्यवहार में कितनी जल्दी बदलाव लाता है|  यह भी स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं है की शासकीय पहलों का निश्चित रूप से एक सकारात्मक असर पड़ा है पर भविष्य के लिए शुभ उम्मीदें बांधना भी कहाँ गलत है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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