मंडला। 'जितना विकास होना था, उतना हुआ नहीं है।' ये उस मतदाता का बयान है, जिसने 1957 से हुए अब तक विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। बुजुर्ग मतदाता दिनेश तिवारी मंडला लोकसभा के इतिहास और बदलते हुए समीकरणों के गवाह हैं। उनका कहना है कि मंडला विकास के मामले में काफी पीछे छूट गया है।
बुजर्ग मतदाता दिनेश तिवारी का कहना है कि क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या है। व्यापार को बढ़ावा देने के लिये भी कोई कदम नहीं उठाए गए। 85 साल के दिनेश तिवारी कहते हैं कि एशिया का सबसे बड़ा नैरोगेज जंक्शन होने के बाद भी नैनपुर की बजाय नागपुर को डिवीजन ऑफिस बनाया गया, यही वजह है कि मंडला जिला पिछड़ा है। जिससे क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या बढ़ती जा रही है। दिनेश तिवारी को किसी भी दल और प्रत्याशी से उम्मीद नहीं बची है। लिहाजा उन्होंने इस बार नोटा दबाने की बात कही है। उनका कहना है कि वह प्रत्याशी और पार्टियों से नाराज हैं।
शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हुए दिनेश तिवारी ने पहले चुनाव से लेकर अपनी रिटायरमेंट के पहले तक बहुत से मतदान देखे और सम्पन्न भी कराए हैं। उनका आरोप है कि उन्होंने मंडला को हमेशा उपेक्षित होते देखा है। इसके लिये दिनेश तिवारी सभी जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि यहां के जनप्रतिनिधियों ने प्राकृतिक संपदा से भरपूर इस आदिवासी अंचल को कुछ खास दिया ही नहीं। जबलपुर से अलग होकर मंडला अस्तित्व में आया। यहां पहली बार 1957 में लोकसभा के चुनाव हुए। जिसमें कांग्रेस के मंगरू बाबू उइके ने जीत हासिल की। इसके पहले मंडला और जबलपुर-दक्षिण मिलाकर एक लोकसभा सीट हुआ करती थी, जिसमें 1952 में निर्दलीय और निर्विरोध मंगरू बाबू उइके ही सांसद चुने गए थे। उसके बाद बाद लगातार 1977 तक कांग्रेस का कब्जा रहा। इस बार यहां से बीजेपी ने वर्तमान सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते और कांग्रेस ने कमल सिंह मरावी पर दांव लगाया है।