भारत में प्रति व्यक्ति भोजन खर्च घटता जा रहा है, भोजन के नाम पर लोग कुछ भी खा लेते है | खान-पान की इस बिगडती आदत का परिणाम मौत के रूप में सामने आता है | वैश्विक रूप से आये आंकड़े भारत की दशा इस मामले ठीक नहीं बता रहे है |जीवित रहने के लिए भोजन अनिवार्य है. लेकिन, कुछ भी खाकर पेट भरने की मजबूरी या लापरवाही जान भी ले सकती है,ल इस तरह के मामले भारत में लगातार प्रकाश में आ रहे है | लांसेट मेडिकल जर्नल में छपे शोध के मुताबिक दुनियाभर में १.१० करोड़ लोगों की मौत अस्वास्थ्यकर भोजन से हुई थी| आंकड़े ज्यादा नहीं दो साल पुराने अर्थात २०१७ के हैं |
खास बात यह है कि यह संख्या तंबाकू सेवन से होनेवाली मौतों से भी अधिक है| इस अध्ययन में यह भी रेखांकित किया गया है कि कैंसर, हृदय रोगों, आघात, डायबिटीज आदि जैसी बीमारियों में बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण खराब भोजन है| इसके पहले भी अनेक पूर्ववर्ती शोधों में भी खान-पान और विभिन्न बीमारियों के संबंध के बारे में आगाह किया गया है| जीवन शैली में बदलाव के कारण ठीक से भोजन करने पर लोगों का ध्यान कम हुआ है| आसानी से तैयार हो जानेवाले और डिब्बाबंद खाने का चलन तेजी से बढ़ा है|
इस शोध में जिन मौतों का अध्ययन किया गया है, उनमें से आधे का कारण अन्न, फलों और सब्जियों का कम सेवन करना और भोजन में जरूरत से अधिक सोडियम का होना है| इस रिपोर्ट में सलाह दी गयी है कि चिकित्सक और पोषण विशेषज्ञ खाने-पीने में परहेज या कटौती पर जोर देने की जगह लोगों को फायदेमंद चीजें खाने को कहें| इस सलाह की वजह बताते हुए इस शोध के प्रमुख डॉ अश्कान आफशीन ने कहा है कि लोग जब कुछ चीजों का अधिक सेवन करने लगते हैं, तो कुछ दूसरी चीजों में कटौती भी करते हैं| अविकसित और विकासशील देशों में गरीबी और कम आमदनी ही एक बड़ी आबादी को समुचित भोजन से दूर कर देती है| इसका नतीजा कुपोषण, बीमारी और कमजोरी के रूप में सामने आता है| दूसरी तरफ विकसित अर्थव्यवस्थाओं में लोग भोजन पर ज्यादा खर्च करने में समर्थ हैं, परंतु वे अधिक कैलोरी, वसा और स्टार्च ले रहे हैं| तली, नमकीन और मीठी चीजों का स्वाद लत में बदलता जा रहा है| वर्ष २०११-१२ में नेशनल सैंपल सर्वे ने भी भारत में भोजन की विषमता पर जारी रिपोर्ट में कहा था कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ा अंतर है|
तब भारत में शहरी आबादी के सर्वाधिक धनी पांच फीसदी हिस्से का प्रति व्यक्ति हर महीने भोजन का खर्च २८५९ रुपये था, जो सबसे गरीब पांच फीसदी ग्रामीण आबादी के खर्च से करीब नौ गुना ज्यादा था| कम गुणवत्ता के भोजन के साथ मिलावट, रसायनों के बेतहाशा इस्तेमाल और खराब पानी जैसी मुश्किलों को जोड़कर देखें, हालात बेहद खराब नजर आते हैं| ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों तथा उनके संबद्ध विभागों को नीतियों और कार्यक्रमों के निर्धारण में भोजन से जुड़े वैज्ञानिक और आर्थिक अध्ययनों का गंभीरता से संज्ञान लेना चाहिए, पर ये विभाग केवल खानापूर्ति में लगे हैं |
सही भोजन के मसले पर लोगों को जागरूक करने का प्रयास भी आवश्यक है तथा इस कार्य में मीडिया और नागरिक समाजों को अग्रणी भूमिका निभाना चाहिए| चिकित्सकों और अस्पतालों के अन्य कर्मियों को नये शोधों की जानकारी होनी चाहिए, जिससे वे लोगों को अच्छा खाने के लिए प्रेरित कर सकें| अभी यह सब नहीं होता है | सही मायने में किसी तरह जीने और स्वस्थ जीवन में भारी अंतर है|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।