'आक्सफैम' की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। इस संकट का उचित समाधान न हुआ तो इसका समाज की स्थिरता और शांति पर प्रतिकूल असर भी हो सकता है । लाखों युवा श्रम-शक्ति में प्रतिवर्ष आ बाजार में आ रही हैं उनके लिए पर्याप्त रोजगार नहीं हैं, दूसरी ओर इन रोजगारों की गुणवत्ता व वेतन अपेक्षा से कहीं कम हैं। लिंग, जाति व धर्म आधारित भेदभावों के कारण भी अनेक युवाओं को रोजगार प्राप्त होने में अतिरिक्त समस्याएं हैं। इस स्थिति से परेशान युवा एक समय के बाद रोजगार की तलाश छोड़ देते हैं। इन कारणों से सरकार द्वारा रोजगार प्राप्ति की सुविधाजनक परिभाषा के बावजूद बेरोजगारी के आंकड़ें चिंताजनक हो रहे हैं|
भारत में बीते मार्च में किए गए सर्वे में ज्यादातर लोगों ने यह तो माना कि देश के लोग बेरोजगारी को लेकर सबसे ज्यादा परेशान पाए गए, हालांकि आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है। हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त हैं। वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशासन में ढाल नहीं सके। कारण राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका।
भारत में इस बार का सर्वे पुलवामा हमले के बाद हुआ तो इस पर उस हादसे की छाया थी लेकिन देश के पिछले सर्वेक्षणों को देखें तो आतंकवाद का स्थान यहां की चिंताओं में नीचे रहा है और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या के तौर पर देखी जाती रही है। रोजगार की फिक्र भारत में सबसे ऊपर होने की पुष्टि अन्य सर्वेक्षणों से भी हुई है। लेकिन सत्रहवीं लोकसभा के लिए जारी चुनाव अभियान में बेरोजागारी के ज्वलंत मुद्दे की उपस्थिति और उस पर कुछ मंथन होता और नतीजे में शायद आगामी चुनी जाने वाली सरकार से रोजगार की कोई तजबीज भी होते हुए दिख पाती। विकास की वर्तमान अवधारणा और उसके चलते फैलती बेरोजगारी को राजनेताओं ने लगभग भूला-सा दिया है, लेकिन ये ही ऐसे मसले हैं जिनके जवाब से कई संकटों से निजात पाई जा सकती है।
सवाल यह है कि क्या भारतीय जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर मुहर लगाने की बजाय इस तरह के बुनियादी मुद्दों पर कोई कठोर निर्णय लेगी? हर बार वह अपने मतों से पूरा पक्ष बदल देती है। कभी इस दल को, कभी उस दल को, कभी इस विचारधारा को, कभी उस विचारधारा को। लेकिन अपने जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को तवज्जों क्यों नहीं देती? कवि शेक्सपीयर ने कहा था- दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है। पर आज अगर शेक्सपीयर होता तो इस परिप्रेक्ष्य में, कहता दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता है। आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। पर शीर्ष पर आज इसका अभाव है। शीर्ष पर मूल्य बन ही नहीं रहे हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ है। मूल्यों से हटकर विचार का पक्ष राजनीतिक निजी हितों पर ठहर गया है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठती भी है तो ऐसा लगने लगता है कि यह विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुस रहा है।
कहने को भारत में सरकार का बेरोजगारी आकलन कई मुद्दों को लेकर किया जता है, लिहाजा ज्यादातर लोगों का भरोसा उसकी नीतियों और नीयत पर है। लेकिन इस बात पर प्राय: आम सहमति है कि रोजगार के मोर्चे पर सरकारे विफल रही हैं । एक पक्ष एनएसएसओ के हवाले से कहता है कि २०१६-१७ में बेरोजगारी की दर ६.१ प्रतिशत तक पहुंच गई जो पिछले ४५ साल का सर्वोच्च स्तर है, लेकिन इस आंकड़े को सरकार नहीं मानती। जो भी हो, इस सर्वे में सरकार के लिए यह संदेश छुपा है कि वह अन्य मुद्दों को प्राथमिकता दे , लेकिन रोजी-रोजगार से जुड़ी मुश्किलों की भी अनदेखी न करे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।