परिणाम आ रहे हैं या आ गये हैं ? चुनाव के नतीजे तो २३ मई को आयेंगे अभी जो परिणाम आ चुके हैं, ये आ रहे हैं | वे देश का भविष्य बनायेंगे | बात स्कूल [ १० वीं और १२ वीं ] के परिणामों की है | ९० प्रतिशत और उससे अधिक नम्बर प्राप्त करने वाले बच्चे और उनके माता-पिता गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं और उससे नीचे के हजारों विद्यार्थी निराश हैं | एक ऐसी दौड़ है जिसमे सबका जीतना असम्भव है | इस नई संस्कृति की अंधी दौड़ में अभिभावक जाने कैसे कैसे सीबीएसई आईसीएससी से संबद्ध प्राइवेट स्कूलों में अपने उन सपनों को साकार करने के लिये लुट रहे है जो हर किसी के लिये जमीन पर उतर पाना संभव नही है।हकीकत तो यह है जो अभिभावक जो खुद अपने सपनों को पूरा नही कर पाया’ वह चाहता है कि उसके बच्चे उन्हें पूरा करें। यह ख्वाहिश आज देश में शैक्षणिक त्रासदी के नाम से घर कर रही है |सब जानते हैं कि कला,साहित्य,खेल,संगीत,नृत्य ,सियासत, समाजकर्म ,व्यापार, उधोग से जुड़ी एक भी सफल हस्ती कभी ९० प्रतिशत अंक लाने वालों में शामिल नहीं रहीं | देश के ८० प्रतिशत नौकरशाह भी स्कूल में ६० से ८० प्रतिशत ही प्राप्त कर सकें हैं |
शिक्षा के नामचीन संस्थाओं के अभिभावकों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चे को मिशनरी या कान्वेंट स्कूल ने जानबूझकर फैल कर दिया है या कम अंक दिए हैं | जब उन्हें आर्थिक स्थिति देखकर जब इन महंगे स्कूल से बाहर करने की सलाह दी जाती है तो वे उखड़ जाते है| कई मामले ऐसे भी हैं की परिवार में अंग्रेजी का कोई वातावरण नही है डायरी पर लिखे नोट उनके घरों में कोई पढ़ नही पाता है बच्चे माँ पिता के दबाब में कुछ बोल नही पाते है और एक बालमन पर लगातार ये अत्याचार चलता रहता है नतीजतन ऑटो चलाने वाले दिहाड़ी मजदूर,अल्पवेतन भोगी,पेट काट कर इन स्कूल की दुकानों पर जाकर लुट रहे हैं । शासन द्वारा स्थापित बाल कल्याण आयोग भी विवश दिखते हैं |
इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की मांए रात भर जागकर ऐसे ऐसे प्रोजेक्ट बनाती रहती है जिनका कोई औचित्य नही होता है वे अपने बच्चे को दूसरों से पीछे न रह जाये इस मानसिकता से घिरी रहती है | कक्षा १ से ही यह प्रोजेक्ट फोबिया काम करने लगता है | माता-पिता और बच्चे इन्हें पूरा करने के लिए इंटरनेट की मदद लेते हैं और इंटरनेट इस आवश्यकता की पूर्ति के साथ क्या परोस रहा है सबको पता है ? एक ऐसी दौड़ चल रही है,जिससे सब त्रस्त है पर कोई भी इससे बाहर नहीं आना चाहता है |
विदेशी भाषा के अध्यापन के नाम पर भारी लूट मची हुई है | देश के अधिकांश हिस्से में बोली और समझी जाने वाली हिंदी को न तो ठीक से पढ़ाया जाता है और न ही उसके लिए कोई प्रयास ही होता है | राष्ट्र भाषा के नाम पर भारी अनुदान और चंदा लेने वाले “हिंदी भवन” भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करते | स्कूलों में जाने की उन्हें फुर्सत नहीं है, “हिंदी भवन” उत्सव भवन बन गये है, जो किराया खाना ही अपना कर्तव्य समझ बैठे हैं | बच्चों की मौलिकता उनकी तार्किकता, तीक्ष्णता, निर्णयन क्षमता का ह्रास हो रहा है| वे परीक्षा परिणाम की नम्बर उगलने मशीन बनते जा रहे हैं | ज्ञान सिर्फ किताबी रटंत से नही आता है इसके लिये अपने व्यक्तित्व को बहुआयामी बनाना पड़ता है जो इस मर्म को समझे वे ही आगे सफल रहे हैं | देश के भविष्य को इस त्रासदी से उबारिये इसी में देश हित है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।