संसद के सेंट्रल हाल में NDA के सांसदों के स्वागत के दौरान प्रधानमंत्री (Prime minister) ने भोपाल से निर्वाचित सांसद की अनदेखी की | इस समाचार के बाद मेरे कुछ पाठकों ने फोन पर ही इसका विश्लेष्ण चाहा | यह विश्लेष्ण किसी एक सांसद के व्यवहार के बचाव में नहीं है और न प्रधानमन्त्री की राय पर कोई टिप्पणी | विषय देश की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर उठता है | बोल वचन के मामले तो पहले भी कई साध्वियों और संतत्व की पांत से उतर राजनीति के मीनाबाज़ार में पहुंचे कई सांसदों के खिलाफ हैं | प्रधानमंत्री ने ऐसे लोगों को इशारा करते हुए, 17 वीं संसद के सांसदों को छपास और दिखास से दूर रहने की सलाह दी है | भोपाल के लाखों मतदाताओं का अपनी सांसद के उस वचन से असहमति और सहमति का कोई सर्वे नहीं हुआ है, पर उनकी भारी जीत का एक कारण उनका महिला होना भी है | वर्षों बाद भोपाल को संसद में महिला सांसद भेजने का मौका मिला, इसमें मैमूना जी, उमा जी और अब , प्रज्ञा जी | इस बार की जीत के कई और भी आयाम हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व है |
चुनाव जैसी महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आकलन में हार-जीत और समीकरणों के अलावा कई अन्य आयाम होते हैं, जिनके आधार पर भारत की बदलती तस्वीर को देखा जा सकता है| तस्वीर एक महत्वपूर्ण आयाम हैं महिला मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी. मौजूदा आम चुनाव में 13 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में पुरुषों से अधिक संख्या में महिलाओं ने मतदान किया है| ये प्रदेश हैं- केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश,बिहार, मणिपुर, मेघालय, पुद्दुचेरी, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मिजोरम, दमन और दीव तथा लक्षद्वीप| मध्यप्रदेश इस सूची में शामिल नहीं है | फिर भी पूरे देश में पुरुष और महिला मतदाताओं की भागीदारी का अंतर भी अब मामूली रह गया है|
2009 में यह आंकड़ा 9 प्रतिशत था, जबकि 2014 के चुनाव में यह अंतर 11.4 प्रतिशत रह गया था. 2019 में यह अंतर ०.4 प्रतिशत है| गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक ऐसे राज्य रहे हैं, जहां पुरुषों ने महिलाओं से बहुत अधिक मतदान किया है, लेकिन यह संतोषजनक है कि इन राज्यों में भी पिछले चुनाव की तुलना में महिलाओं की भागीदारी में बढ़त रही| इन आंकड़ों में उन राज्यों की संख्या बढ़ सकती है, जहां महिलाओं की पेक्षाकृत अधिक भागीदारी रही है| 2014 में ऐसे राज्यों की कुल संख्या 16 रही थी. ऐसे समय में, जब देश के अनेक हिस्सों में लिंगानुपात का स्तर चिंताजनक है तथा कार्य बल में भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है, मतदान में उनकी बढ़त एक स्वागत योग्य संकेत है. यह हमारे लोकतंत्र के मजबूत होने का सबूत है| 1962 के तीसरे आम चुनाव में 46.6 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया था, जबकि पुरुषों का आंकड़ा 63.3 प्रतिशत रहा था| इस 17 प्रतिशत के अंतर को 0. 4 प्रतिशत लाने में छह दशक लगे हैं| महिला, ट्रांसजेंडर और दिव्यांग मतदाताओं को प्रोत्साहित करने के लिए चुनाव आयोग ने बड़ा अभियान चलाया,जिसका शानदार परिणाम हमारे सामने है, परंतु हमारी राजनीति में अब भी पुरुषों का ही वर्चस्व है| इस बार कुल आठ हजार उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या आठ सौ भी नहीं है| मौजूदा लोकसभा में सिर्फ ६६ महिला सदस्य हैं| निश्चित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है| लोकतंत्र और विकास की गति को बेहतर करने के लिए महिलाओं की सहभागिता अनिवार्य है |
भोपाल की सांसद भी इन 66 महिलाओं में से एक हैं |अनुभव की कमी, पीड़ा का लम्बा काल, और थोडा छपास का लोभ, कुल मिलाकर कर उस सबकी पृष्ठभूमि जिसमें उनसे गलतियाँ हुई | यह विश्लेष्ण उनकी माफ़ी की अपील नहीं है, उनके लिए आत्मावलोकन का अवसर है | 17वीं संसद देश के लिए शुभ हो, सारे सांसद बिना भेदभाव और पक्षपात के राष्ट्रहित में जुटे | नागरिक मत देने के बाद सरकार के साथ होते हैं | सरकार को भी अपना नजरिया उदार रखना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।