नई दिल्ली। भारत को बिना किसी कारण के एक वैचारिक द्वंद में घसीटने की कोशिश राजनीति कर रही है. राम और गाँधी को दो अलग-अलग छोरों पर खड़े करने की कोशिश में में कुछ लोग लगे हैं। जबकि ये दोनों विभूतियाँ भारत की पहचान है। देश राम की पावन धरती के नाम से पहचाना जाता है। तो आधुनिक इतिहास में भारत की पहचान गांधी के देश के रूप में होती है। राम हों या गांधी दोनों ही में अनुसरण करने योग्य अनेक आदर्श हैं। राम को भारतीय समाज भगवान के रूप में स्वीकार करता है महानायक के रूप में महात्मा गांधी को। इनके साथ अब देश में गोडसे की जयंती मनाने तथा उसकी मूर्ति स्थापित करने जैसे नये कृत्य किये जा रहे हैं। 19 मई को गुजरात के सूरत जि़ले के लिंबायत क्षेत्र में गोडसे जयंती हिन्दू महासभा ने मनाई। इस मामले में 6 गिरफ्तारियां भी हुई। सवाल यह है कि हम कहाँ जा रहे हैं? हद तो यहाँ तक हो रही है कि महात्मा गांधी को राष्ट्रविरोधी प्रमाणित करने की कोशिश की जा रही है। एक बार फिर देश में इस बहस ने ज़ोर पकड़ लिया कि देशभक्ति की परिभाषा है क्या?
सबसे अहम सवाल यह उठता है कि उस भारतीय समाज जो राम-रहीम,नानक,तुलसी व कबीर जैसे साधू-संतों की छत्रछाया में पलने व बढ़ने वाला समाज है | वहां यह सब क्यों ? यदि हम अपने समाज का चरित्र-चित्रण करें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि नैतिकता के क्षेत्र में हमारा तेज़ी से सामाजिक पतन होता जा रहा है। गरीब, कमज़ोर, महिलाओं तथा दबे-कुचले लोगों पर ज़ुल्म बढ़ता जा रहा है। बलशाली लोगों द्वारा गरीबों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक असमानता तेज़ी से फैल रही है। साधू-संतों के वेश में वे संतत्व से दूर एक नई प्रवृति जन्म ले रही है जो देश का नुकसान ही करेगी| जैसे चुनाव जीतने के लिए मिर्ची यग्य और बेढब तरीके से किसी एक समाज की पक्षधरता, इसके क्या परिणाम होंगे? राजनेता समाज को जोड़ने के बजाए विभाजित करने में अपना ज़्यादा समय दे रहे हैं। 'बुराई पर अच्छाई की जीत' के बजाए 'अच्छाई पर बुराई की जीत' का फैशन चल पड़ा है । समाज में नकारात्मकता की स्वीकार्यता तेज़ी से बढ़ रही है।
सवाल यह है की क्या किया जाये? और इसे कौन करे? निश्चित रूप से हमे अपनी पहचान को बदलना होगा | सारे खांचों को मिलाकर एक समूह बनाना होगा जिसका नाम और पहचान भारतीय के रूप में हो और उसके कामों से भारतीयता में निखार आये। राम की धरती और गाँधी के देश की पहचान बनाने के लिए सबसे जरूरी है वोट बैंक की राजनीति का खात्मा । अभी भारतीय समाज को किसी खांचे की पहचान देकर वोट कबाड़ने की मशक्कत जोरों पर है | इस लोकसभा चुनाव् में प्रत्याशी चयन और परिणाम इस वोट कबाड़ने की दिशा को साफ़ इंगित करते हैं।
इस दिशा में पहला प्रयास स्कूल से हो सकता है | जातिवादी पहचान से चलते स्कूलों को सिर्फ स्कूल, विद्यालय, महाविध्यालय और विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाये उनके आगे लगने वाले जाति और वर्ग रूपी प्रत्यय को हटाने के प्रयास भारतीय समाज द्वरा हो| सरकार के स्तर पर होने वाले ऐसे प्रयासों के साथ कभी आग्रह कभी पूर्वाग्रह तो कभी कभी दुराग्रह तक जुड़ जाते हैं | समाज के स्तर इसे एक करणीय कार्य का महत्व मिले | देश के गौरव चिन्हों, स्थानों और विभूतियों के सम्बन्ध में एक राष्ट्रीय नीति का निर्माण हो | यही राष्ट्र हित है, इससे इतर कवायदों को सब समझते हैं और उसका कुछ भी नाम हो सकता है, कुछ भी रूप हो सकता है पर उससे देश हित नहीं होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।