डॉ अजय खेमरिया। गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार ने मप्र की कांग्रेस राजनीति में आपसी संघर्ष की नई पटकथा लिख दी है। नकुलनाथ को छोड़कर मप्र के सभी कांग्रेसी सूरमा बुरी तरह से हारे है सरकार के तीन चौथाई मंत्रियों के इलाकों से कांग्रेस बुरी तरह हारी है। मुख्यमंत्री ने 22 प्लस का नारा दिया था लेकिन 29 में से 28 सीटों पर कांग्रेस बुरी तरह हारी है। भोपाल में दिग्विजयसिंह, गुना में सिंधिया, सीधी में अजय सिंह, जबलपुर में विवेक तन्खा जैसे दिग्गज नेता बुरी तरह परास्त हुए है।
मप्र की इस हार ने एक बार फिर कांग्रेस दिग्गजों को एक दूसरे के आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया है। पूर्व मंत्री और 6 बार से विधायक केपी सिंह ने यह कहकर मामले की गंभीरता को सामने ला दिया कि अब राजा महाराजा को चाहिये कि मुख्यमंत्री कमलनाथ को फ्री हैंड छोड़कर राजा (दिग्गिराजा), महाराजा (सिंधिया) दिल्ली में आराम करें। इधर बाल विकास मंत्री इमरती देवी, पशुपालन पालन मंत्री लाखन सिंह यादव ने मुख्यमंत्री के नेतृत्व पर सवाल उठाना शुरू कर दिए है। एक टीव्ही शो में कांग्रेस की हार पर पक्ष रखते हुए मुकेश नायक ने भी कमलनाथ की कार्यशैली पर उनके अंतर्मुखी व्यक्तित्व को लेकर कुछ इसी तरह से सवाल खड़ा किया है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सबसे ज्यादा घबराहट मप्र की कमलनाथ सरकार में देखी और सुनी जा रही है। क्या वाकई मप्र में कमलनाथ सरकार को कोई खतरा है? कल की विधायक दल की बैठक के बाद से लगता तो नही है जिसमे 121 का आंकड़ा परेड के लिये तैयार था बाबजूद इसके खतरा घर मे खड़ा है बहुमत से 2 विधायक कम रहने के कारण कमलनाथ मन्त्रिमण्डल गठन में सीनियरिटी, क्षेत्रीय सन्तुलन का ध्यान नही रख पाए। 6 बार तक के लगातार विधायक मंत्री नही बनाये गए और दूसरी बार विधायक बने के कई लोग मंत्री बनने में सफल रहे यह स्थिति कमलनाथ के लिये मजबूरी में निर्मित हुई क्योंकि सिंधिया, दिग्गिराजा के दबाब में उनके कोटे पूरे करने पड़े इस बीच वरिष्ठता, कैडर, को पीछे रखना पड़ा यही से इस सरकार स्थिरता को लेकर सवाल उठने लगे खुद कांग्रेस विधायकों के बयानों ने इस हवा को बनाने का काम किया।
मंत्रिमंडल में आने से वंचित रहे सीनियर विधायको ने एक दूसरे सरदारों पर खुलेआम निशाना साधना शुरू कर दिया। एडल सिंह कंषाना, जयवर्द्धन सिंह दत्ती गांव, बिसाहूलाल सिंह, नातीराजा, केपी सिंह, लक्ष्मण सिंह, जैसे 20 से अधिक विधायक मंत्री पद की महत्वाकांक्ष लिए हुए है सपा, बसपा, औऱ सभी 4 निर्दलीय विधायक भी मंत्री रुतबा चाहते है। कमलनाथ की बुनियादी दिक्कत यह है कि उनके पास दावेदारों को समायोजित करने के लिये विकल्प बहुत सीमित है। कल विधायक दल की बैठक में एक विधायक ने 20 कांग्रेस विधायको के बीजेपी के सम्पर्क में रहने का दावा किया है। बुरहानपुर औऱ सुसनेर के निर्दलीय विधायक भी आंखे तरेर रहे है भिंड के बसपा विधायक मूलतः भाजपाई ही है। कुल मिलाकर कांग्रेस में अंदरूनी चुनौतीयां कम नहीं है।
लोकसभा चुनावों ने इस अंदरूनी क्लेश को औऱ भी गहरा कर दिया है।सिंधिया के प्रभाव क्षेत्र वाला मध्यांचल में पार्टी बुरी तरह हारी है सिंधिया से जुड़े एक बड़े नेता के अनुसार इस स्थिति के लिये मुख्यमंत्री और दिग्विजयसिंह जिम्मेदार है क्योंकि टिकट वितरण में सिंधिया की पसन्द को दरकिनार किया गया।भिंड में सिंधिया नही चाहते थे कि देवाशीष जरारिया को टिकट दी जाए क्योंकि उनकी इमेज कट्टर दलित एक्टिविस्ट की है और 2 अप्रेल के सवर्ण वर्सेज दलित झगड़े में उनकी भूमिका आपत्तिजनक थी इसके बाद भी सीएम औऱ दिग्गिराजा की सिफारिश पर भिंड से देबाशीष को टिकट दी गई परिणाम 2 लाख से कांग्रेस हार गई और इस केन्डिडेचर का असर अंचल के आसपास भी पड़ा।
ग्वालियर की सीट पर भी सिंधिया नही चाहते थे कि अशोक सिंह को कांग्रेस की टिकट मिले अशोक 3 चुनाव यहां से हार चुके थे दो बार तो उन्होनें महल के उम्मीदवार सिंधिया की बुआ श्रीमती यशोधरा राजे को कड़ी टक्कर दी थी।सिंधिया यहां से किसी अन्य समर्थक को टिकट दिलाने के लिये प्रयासरत थे लेकिन कमलनाथ औऱ दिग्गिराजा के दबाब में अशोक सिंह टिकट पाने में सफल रहे। मुरैना में जरूर उनकी सिफारिश पर रामनिवास रावत को टिकट मिली। सिंधिया भिंड औऱ ग्वालियर के टिकट वितरण से इतने नाराज थे कि जब इनके समर्थन में राहुल गांधी सभा करने आये तो सिंधिया शिवपुरी में रहते हुए भी इन सभाओं में नही गए। ग्वालियर औऱ भिंड में एक एक सभा लेने वे गए जरूर पर सभा मंच से ही स्पष्ट कर दिया कि दोनो राहुल गांधी के खड़े किये प्रत्याशी है उनका इशारा आसानी से समझा जा सकता था।
इस बीच कट्टर महल विरोधी दलित नेता फूल सिंह बरैया, साहब सिंह गुर्जर को कमलनाथ ने सीधे कांग्रेस ज्वाइन करा दी इससे सिंधिया नाराज हो गए उन्होंने भी जबाबी हमला करते हुए ठाकुर लॉबी के दुश्मन चौधरी राकेश को अपने मंच से ही कांग्रेस में शामिल कर दिया। मुरैना से 2014 में डॉ गोविन्द सिंह की हार सुनिश्चित करने वाले व्रन्दावन सिंह को भी सिंधिया ने इसी होड़ में बसपा से कांग्रेस में शामिल कराया।सिंधिया कोटे से मंत्री प्रधुम्न सिंह,इमरती देवी,गोविंद राजपूत, प्रभुराम चौधरी,तुलसी सिलावट, लाखन सिंह पूरे समय अपने अपने जिले छोड़कर गुना में जुटे रहे।यह स्थिति कांग्रेस के अन्दर के असली हालातों को बयां करने के लिये पर्याप्त है।
भिंड, ग्वालियर के टिकट को लेकर सिंधिया की नाराजगी का स्तर इस बात से ही समझा जा सकता है की वे 12 मई को वोटिंग के बाद सिर्फ एक सभा के किया धार गए इसके बाद वे विदेश रवाना हो गए। जबकि 19 मई को जिन 9 सीटों पर मप्र में मतदान था वे सभी सिंधिया स्टेट के प्रभाव क्षेत वाली थी इंदौर उज्जैन में तो प्रियंका गांधी तक प्रचार करने आई पर सिंधिया नही गए। इसी तरह सिंधिया के चुनाव में दिग्गिराजा के समर्थक भी उदासभाव के साथ सिंधिया की पराजय की कामना करते रहे उन्हें 2002 के बाद से वैसे ही पूछा नही जा रहा है यह अलग बात है कि सिंधिया विरोधी समझे जाने वाले पिछोर के विधायक केपी सिंह के यहां से सिंधिया 16 हजार से जीतने में सफल रहे शेष सभी असेंबली सेग्मेंट में सिंधिया हार गए।
आने वाले समय कांग्रेस के लिये बेहद चुनौतीपूर्ण होने है क्योंकि सरकार की स्थिरता पर सदैव सवाल बना रहेगा औऱ खेमेबाजी तेजी से बढ़ने वाली है इधर कार्यकर्ताओं के लिये संगठन जनसेवा के लिये प्रेरित कर पायेगा इसकी संभावना क्षीण इसलिये है क्योंकि एक तो सत्ता 15 साल बाद मिली है दूसरा कांग्रेस यहां बहुसंस्करणीय है दिग्गिराजा कि कांग्रेस, महाराजा की कांग्रेस, कमलनाथ की कांग्रेस इनमे इतना ज्यादा आपसी इन्टॉलरेंस है कि आप कांग्रेस खोज नही सकते है राहुल गांधी और उनके वामी सलाहकार पहले मप्र कांग्रेस के आपसी इन्टॉलरेंस को ही खत्म कर दे तो यह बड़ी बात होगी उनके नेतृत्व में।