नई दिल्ली। सोनिया गाँधी (Sonia Gandhi) के जिम्मे फिर संसद (Parliament) में कांग्रेस (Congress) की कमान आ गई है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, वे चौथी बार वे इस पद पर शोभित होंगी। आम चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद हतोत्साहित कांग्रेस का यह पहला निर्णय है। राहुल गाँधी (Rahul Gandhi) के इस्तीफे के बाद से कांग्रेस को एक अदद राष्ट्रीय अध्यक्ष और कुछ प्रदेश अध्यक्षों की तलाश है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कार्यकारिणी की बैठक में इस्तीफे की पेशकश की, जिसे नहीं माना गया, और अब राहुल गाँधी नहीं मान रहे हैं।
वे भी अपना इस्तीफा स्वीकार कराना चाहते हैं। कुछ और नेताओं ने भी राहुल गांधी की तरह हार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेते हुए इस्तीफा देना चाहा है। कांग्रेस किसे अपना अध्यक्ष बनाती है, किसका इस्तीफा स्वीकार करती है, हार के लिए किसे जिम्मेदार मानती है, यह उसका अंदरूनी मामला है। कांग्रेस में संगठनात्मक तौर पर बदलाव आए न आए, उसके तौर-तरीकों और रवैये में बदलाव का वक्त अब आ गया है। कांग्रेसजनों का एक खेमा गुपचुप तरीके से गाँधी परिवार से मुक्ति चाहता है | यह खेमा हो या वो खेमा किसी के पास राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए कोई सर्वमान्य नाम है ही नहीं। सबकी निगाहें गाँधी परिवार से इतर कुछ भी नहीं खोज पा रही है।
वैसे यह बात अलग है कि वांछित परिणाम नहीं आये, पर राहुल गांधी ने कांग्रेस को मजबूत करने का काम तो किया। राहुल के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। अब भी लोकसभा में कांग्रेस की सीटों में थोड़ी बढ़त हुई है। यह सब कहीं से भी भाजपा के मुकाबले खड़े होने के लिए काफी नहीं है। यह बात राहुल गांधी को भी समझनी होगी और कांग्रेस के बाकी लोगों को भी। बरस दर बरस कांग्रेस का जनाधार अगर कम हुआ है, तो इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का जनता से दूर जाना ही है। कांग्रेस गुलाम भारत में केवल संभ्रांत तबके तक ही सिमटी हुई थी और गरीब, मध्यमवर्गीय जनता से कटी हुई थी, वैसा ही हाल बीते कई बरसों में कांग्रेस का फिर से हो गया है। उसकी सारी अच्छी नीतियां, विचार, योजनाएं आम जनता तक उस तरह से संप्रेषित ही नहीं हो रही, जिससे वह उसे अपनी पार्टी मान सके। महात्मा गांधी ने भारत में आजादी के संघर्ष में नई जान फूंकने के लिए आम जन को कांग्रेस से जोड़ा था। लेकिन अब जनता को, खासकर युवाओं और महिलाओं को कांग्रेस से जोड़ने के लिए कोई नई रचनात्मक पहल नहीं हो रही है, सिवाय गाँधी परिवार के किसी अन्य महिला को कांग्रेस महत्व नहीं देती। प्रियंका चतुर्वेदी का मामला सब जानते है| इस मामले में कांग्रेस को भाजपा की सलाह और नये प्रयोग की जरूरत है।
2014 में पहली बार सत्ता संभालने के साथ ही भाजपा ने नए सदस्य बनाने का व्यापक अभियान चलाया था और सबसे अधिक सदस्यों के रिकार्ड होने का दावा भी किया था। नगरीय निकायों से लेकर राज्य स्तर तक के चुनाव में भाजपा लड़ने नहीं बल्कि जीतने की मानसिकता से उतरी और इसके लिए अपने छोटे से छोटे कार्यकर्ता को सक्रिय किया। बहुत से चुनावों में इसका लाभ उसे मिला। जहां हार मिली, वहां अगली बार जीत कैसे सुनिश्चित हो, इस पर भाजपा नेतृत्व ने विचार करना शुरु कर दिया। यही कारण है कि जिन राज्यों में भाजपा ने सत्ता खोई, वहां आम चुनावों में उसे जीत मिली। कांग्रेस में इस जुझारूपन की कमी जमीनी स्तर पर महसूस की गई। यह कभी तब भी थी जब सोनिया गाँधी अध्यक्ष थीं | अब इसमें निरंतर इजाफा हो रहा है |
आज अगर अमित शाह अगले 50 साल तक सत्ता में बने रहने की अलोकतांत्रिक बात करते हैं, तो इसका आधार क्या है ? कांग्रेस को इस बात पर मंथन करना चाहिए, खासकर उन कांग्रेसियों को जो अपने को गांधी परिवार के आश्रित मान बैठे हैं । केवल राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सक्रियता से कांग्रेस जनता से नहीं जुड़ सकती। इसके लिए उसे ऐसे नेता भी चाहिए, जो जमीन से जुड़े हों और जिनकी आवाज का असर देशव्यापी हो। वैसे इन दिनों कांग्रेस में ऐसे तथाकथित नेताओं की भरमार है, जो सोचते अंग्रेजी में हैं, बोलते हिंदी में हैं और जो बोलते हैं, उससे अर्थ का अनर्थ होता है| जैसे सेम पित्रोदा, मणिशंकर अय्यर आदि | बाद में या तो वे सफाई देते हैं या उनके अध्यक्ष को इसके लिए माफी मांगनी होती है। अनेक प्रकरणों में कांग्रेस को इसका नुकसान हुआ है |
नया अध्यक्ष चाहे गाँधी परिवार से या उससे इतर उसे कठोर रुख उनके प्रति रखना होगा जिनके कारण कांग्रेस को नुकसान हुआ है, उनकी जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। राहुल गाँधी ने पुत्रमोह–परिवारमोह को पहचान लिया है, जो भी अध्यक्ष बने उस इस मोह की बीमारी से मुक्ति का उपाय प्राथमिकता से खोजना चाहिए | जो अब सर्जरी है, उससे आगे पीछे कुछ नहीं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।