भोपाल। भोपाल के निवासी सोशल मीडिया पर शिद्दत से भोपाल के महापौर को तलाश कर रहे थे, महापौर बरसाती सूरज की तरह एक कार्यक्रम में दिख कर ओझल हो गये | शहर के नागरिकों द्वारा उनकी तलाश जायज है, बारिश ने भोपाल नगर निगम की बखिया उधेड़ दी है | शुक्र है बारिश थमी हुई है, पहली ही बारिश ने शहर में बड़े- बड़े गड्डे और उनमें गंदा पानी जमा हो गया था. अगर पिछले तीन दिनों मौसम खुश्क नहीं होता तो भोपाल का नजारा कुछ और ही होता | इस गर्मी में भोपाल के बुरे हाल रहे हैं | पेयजल के लिए जिम्मेदार नगरनिगम और लोक स्ववास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने हाथ खड़े कर दिए थे | पेयजल के टैंकर वी आई पी परिक्रमा में लगा दिए गये थे | नगर निगम के पेयजल के टेंकर और चलित शौचालय पड़ोसी जिले सीहोर के जैत तक पहुँच गये थे| नगर निगम और सरकार को टैक्स देने वाले भोपाल के निवासियों ने 500 से हजार रूपये देकर पीने का पानी खरीदा है | अब सवाल यह है की पीने का पानी पहुंचाना क्या नगर निगम या सरकार की जिम्मेदारी है? बेशक कनेक्शन दिया है तो आप आपूर्ति कर्ता है और नागरिक उपभोक्ता |
इसका एक दूसरा और बड़ा पक्ष भी है| सही मायने में पानी पहुंचाने का जिम्मा सरकार ने स्थानीय समुदाय या परिवारों से छीनकर खुद पर ले लिया है । इस जिम्मेदारी से पहले बारिश का पानी जमा करना एक समुदाय का जीविकोपार्जन था | सरकारी जिम्मेदारी के बाद न केवल यह व्यवसाय एक समुदाय से छिन गया बल्कि उनके के लिए प्राथमिकता भी नहीं रह गया। दूसरी बात, बारिश के पानी से रिचार्ज होने वाले भूमिगत जल की जगह दूर से नहरों के जरिये लाए जाने वाले भूजल ने ले ली। यही वजह है कि बारिश का पानी बचाना भी, अब एक विचार से मजबूरी होता जा रहा है| पानी का अकाल दरवाजे पर है. जल उपलब्धता की भावी व्यवस्था का अनुमान रोंगटे खड़े कर देता है | पैसे से पानी खरीदा जा सकता है, पर पैसे से बनाया नहीं जा सकता | हाँ! भोपाल नगर निगम न पानी बचाता है और न पैसा | वर्तमान परिषद में दोनों बह रहे हैं | भोपाल के महापौर खुशनसीब है कि आधा शहर केपिटल प्रोजेक्ट ने बसाया है, नगर निगम ने तो पानी बचाने के लिए कुछ किया ही नहीं | सिवाय जैसे तैसे जल प्रदाय और जल कर की मनमानी वसूली | अब भी भवन अनुज्ञा की अनिवार्य शर्त बरसाती जल संरक्षण नहीं है, और यदि है तो सिर्फ कागज पर |
मूल बात यह है सरकार अकेली पानी को जमा नहीं कर सकती है, इसमें लोगों को भी शामिल होना पड़ेगा। हरेक घर, कॉलोनी, गांव और बस्ती में इस पानी को बचाकर रखना होगा। इसके लिए हम तभी प्रोत्साहित होंगे जब हम अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए भूमिगत जल पर निर्भर होंगे। अगर शहरों और गांवों में भी लोगों को दूरदराज से पाइप से लाया गया पानी मिलता रहेगा तो लोग बारिश के पानी को क्यों बचाएंगे और जमा करेंगे? दूसरी समस्या यह है कि हमने जमीन पर गिरने वाली बारिश का पानी सहेजने के विज्ञान एवं कला को समझा ही नहीं है। बारिश का पानी जिस जमीन पर गिरता है वह या तो कब्जे में है या उसे भूमि-सुधार के क्रम में बांट दिया गया है। इससे पानी को भूमिगत भंडार तक ले जाने के लिए जरूरी नैसर्गिक नालियां बरबाद हो चुकी हैं। सोचिये, फिर हम बारिश की बूंदों को कैसे बचा पाएंगे? हम ऐसा नहीं कर सकते हैं और न ही करेंगे। यही कारण है कि सूखे एवं बाढ़ का दुष्चक्र चलता रहेगा और उसमें तेजी ही आएगी। ऐसे में सरकार, नगर निगम और हम सबको जल संरक्षण की उस परंपरागत समझ से कुछ सीखना चाहिए, जिसे हम नजरअंदाज करते जा रहे हैं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।