नई दिल्ली। आतंकवाद अब देश की एक प्रमुख समस्या है। उससे निबटने की नई नीति कितनी कारगर होगी अभी कुछ कहना संभव नहीं है इस मुद्दे पर सारे देश को एक होना चाहिए था। जब संसद ही एक मत नहीं तो सम्पूर्ण देश के एकमत होने की बात अधूरी है। आतंकवाद किसी भी समाज और देश के सामने बड़ी और काफी कड़ी चुनौतियां पेश करता है। इससे टकराने और मात देने के लिए सिर्फ मुस्तैदी ही काफी नहीं होती, बल्कि कई तरह की सोच और स्थापनाएं भी बदलनी होती हैं। अचानक ही हम ऐसी जगह खड़े हो जाते हैं, जहां पहुंचकर लगता है कि इससे निपटने के लिए हमारे मौजूदा कानून और तौर-तरीके पर्याप्त नहीं हैं।
समाज के नए अनुभवों से सबक लेते हुए कार्यपालिका को इन्हें लगातार बदलना पड़ता है। बदलाव का यह दबाव इसलिए भी होता है कि आतंकवादी संगठन तौर-तरीकों और कानूनी खामियों का फायदा उठाने के तरीके सीख चुके होते हैं। यही पूरी दुनिया में हुआ है और यही भारत में भी हो रहा है। लोकसभा द्वारा पास किए गए विधि विरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण संशोधन विधेयक यानी यूएपीए को हमें इसी संदर्भ में देखना होगा। इसी के साथ ही राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी अधिनियम में भी संशोधन हुआ है। ये दोनों ही चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं। यूएपीए का संशोधन आतंकवाद के मामले में राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी यानी एनआईए के अधिकारों को विस्तार देता है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों पर कानून पास करना कभी आसान नहीं होता, क्योंकि ऐसे कानून कई नए विवाद पैदा कर देते हैं और कुछ पुराने विवादों को खड़ा कर देते हैं। यही इस बार भी हुआ। संशोधन विधेयक के खिलाफ मत तो कम ही पड़े, लेकिन विपक्ष का एक हिस्सा मतदान के समय सदन से बर्हिगमन कर गया। सांसदों की यह कार्यवाही जनमानस को कमजोर करती है | विषय की गंभीरता कम होती है |
नये संशोधन विधेयक के कानून बन जाने के बाद , तो किसी भी संगठन या व्यक्ति को उसकी गतिविधियों के आधार पर आतंकवादी घोषित किया जा सकेगा। यह अभी तक की उस सोच के खिलाफ है, जो यह मानती है कि जब तक किसी पर आरोप साबित न हो जाए, उसे दोषी नहीं माना जा सकता, चाहे यह आरोप आतंकवाद से संबंधित ही क्यों न हो। एक दूसरी आपत्ति यह है कि इस संशोधन के बाद एनआईए बिना किसी राज्य सरकार या स्थानीय पुलिस की अनुमति के, यहां तक कि उन्हें सूचना दिए बगैर किसी भी राज्य में जाकर जांच कर सकती है और छापा भी मार सकती है। कहा जा रहा है कि इससे राज्य सरकारों के अधिकारों का हनन होता है और इसलिए यह भारतीय संघ की अवधारणा के विरुद्ध है। तकनीकी रूप से इन तर्कों में दम हो सकता है,लेकिन आतंकवाद का जो रूप आज हमारे सामने है, उनमें किसी भी एजेंसी के लिए अनुमति लेने और सूचना देने जैसी चीजों में समय गंवाना काफी महंगा भी साबित हो सकता है। आतंकवाद के लिए बनी एजेंसी को ऐसी औपचारिकताओं में फंसाना बुद्धिमानी नहीं होगी। नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के साथ राष्ट्र हित का ध्यान अत्यंत जरूरी है |
लोकसभा में इसके दुरुपयोग की आशंकाओं का जो मुद्दा उठाया गया, उसे पूरी तरह दरकिनार नहीं किया जा सकता। गृह मंत्री अमित शाह का यह तर्क महत्वपूर्ण है कि सरकार संशोधन इसलिए नहीं कर रही कि कानून का दुरुपयोग हो, इसलिए कर रही है कि आतंकवाद पर नकेल कसी जा सके। दुरुपयोग की आशंकाएं लगभग हर कानून को लेकर उठती हैं, जो पूरी तरह बेबुनियाद भी नहीं होतीं। दुरुपयोग भी हमारी व्यवस्था का ही एक सच है। एक बड़ी जरूरत कानूनों के दुरुपयोग को रोकने की है, लेकिन सिर्फ इसी वजह से आतंकवाद जैसे मसले पर कानूनी बदलाव को रोकना कहीं से भी उचित नहीं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।